________________ चौसठवाँ अध्याय इस अध्याय में यह बताया गया है कि विभावरी और कलावती ने रोगमुक्त हो अपने उपकार के बदले में स्वरोचिष को श्रात्मसमर्पण किया और उसने अपनी पत्नी मनोरमा की अनुमति से उन दोनों को भी अपनी पत्नी बनाया। विभावरी ने सब प्राणियों की बोली समझने की विद्या और कलावती ने पद्मिनी नामक निधि-विद्या उसे विवाह के शुल्क के रूप में प्रदान की। पैसठवाँ अध्याय इस अध्याय में बताया गया है कि एक दिन जब वह अपनी तीनों पत्नियों के साथ किसी पर्वत पर वनविहार कर रहा था तब अपने विषय में एक कलहंसी और एक चक्रवाकी का वार्तालाप सुना। कलहंसी चक्रवाकी से कह रही थी कि .. धन्योऽयं दयिताभीष्टो ह्येताश्चास्यातिवल्लभाः। परस्परानुरागो हि धन्यानामेव जायते // 11 // .. यह पुरुष और ये स्त्रियाँ धन्य हैं जो इनमें इतना परस्पर प्रेम है, क्योंकि भाग्यशाली स्त्री-पुरुषों में ही परस्पर प्रेम होता है। इसके उत्तर में चक्रवाकी कह रही थी कि ... नायं धन्यो यतो लज्जा नान्यस्त्रीसन्निकर्षतः / अन्यां स्त्रियमयंभुङक्ते न सर्वास्वस्य मानसम् / / 13 / / चित्तानुराग एकस्मिन्नधिष्ठाने यतः सखि ! / ततो हि प्रीतिमानेषभायोसु भविता कथम् ? // 14 // एता न दयिताः पत्यु तासां दयितः पतिः। विनोदमात्रमेवैता यथा परिजनोऽपरः // 15 // यह पुरुष धन्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक स्त्री के समक्ष दूसरी स्त्री से सम्पर्क करने में इसे लज्जा नहीं पाती। यह अन्य स्त्री से भी सम्पर्क रखता है। इसका चित्त किसी में अनुरक्त नहीं है। किसी एक ही आलम्बन में अनुराग होना चित्त का स्वभाव है अतः अनेक भार्यात्रों में इसकी प्रीति कैसे हो __ सकती है। यह निश्चय जानो कि न इन स्त्रियों में इसका प्रेम है और न इसमें इन स्त्रियों का प्रेम है। इनका पारस्परिक प्रेम-व्यवहार. एक विनोदमात्र है। इनका सम्बन्ध अन्य परिजनों के सम्बन्ध से भिन्न नहीं है। इसी प्रकार उसने