________________ ( 102 ) कदापि न करनी चाहिये / अतः मैं तुम्हें किसी भी स्थिति में नहीं चाह सकता, भले तुम निरन्तर रोती रहो अथवा शोक से सूख जायो / अध्यायान्त में ब्राह्मण ने गार्हपत्य अग्नि से प्रार्थना करते हुये कहा है कि - यथा वै वैदिकं कर्म स्वकाले नोज्झितं मया / तेन सत्येन पश्येयं गृहस्थोऽद्य दिवाकरम् // 18 // यथा च न परद्रव्ये परदारे च मे मतिः / कदाचित् साभिलाषाऽभूत्तथैतत्सिद्धिमेतु मे // 16 // अर्थात् यदि मैंने कभी भी ठीक समय पर वैदिक कर्म का परित्याग न किया हो और यदि कभी भी मेरे मन में पराये धन तथा परायी स्त्री की अभिलाषा न हुई हो तो सूर्यास्त के पूर्व घर पहुँचने का मेरा मनोरथ पूर्ण हो। ब्राह्मण के इस वचन से कर्त्तव्यनिष्ठा और चरित्रनिष्ठा से मनुष्य को अद्भुत अात्मबल प्राप्त होने का विश्वास प्राप्त होता है / बासठवां अध्याय इस अध्याय में यह कहा गया है कि ब्राह्मण अपने कर्म और चरित्र के बल अग्निदेव की शक्ति प्राप्त कर यथा समय अपने घर पहुँच जाता है | उसके चले जाने से वरूथिनी उसके विरह में व्यथित हो जाती है / कलि नाम का गन्धर्व, जिसकी प्रणय-प्रार्थना वरूथिनी द्वारा कभी ठुकरा दी गयी थी, इस अवसर सेलाभ उठाने के लिए उस ब्राह्मण के रूप में वरूथिनी के पास पहुँचता है और उसका सम्भोग करने में सफल होता है। तिरसठवाँ अध्याय ___ इस अध्याय में बताया गया है कि विप्ररूपधारी गन्धर्व के सम्पर्क से वरूथिनी को स्वरोचिष नामक पुत्र पैदा हुआ और वह जब शस्त्र, शास्त्र और कलाओं में प्रवीण तथा युवा हुआ तब उसने इन्दीवराक्ष नामक विद्याधर की कन्या मनोरमा से विवाह कर उससे अस्त्रहृदयविद्या तथा उसके पिता से श्रायुर्वेद विद्या विवाह के शुल्क के रूप में प्राप्त की। मनोरमा की प्रार्थना मान उसकी विभावरी तथा कलावती नाम की सखियों को, जो क्रम से मन्दार नामक विद्याधर तथा पारमुनि की कन्यायें थीं और किसी मुनि के शाप से कुष्ट एवं क्षय रोग से ग्रस्त थीं आयुर्वेदिक चिकित्सा से रोग मुक्त किया !