________________ अट्ठावनवाँ अध्याय इस अध्याय में भारतवर्ष के अाधार भगवान् कूर्म का तथा मनुष्यों के शुभाशुभ की सूचना देने वाले प्रकारों का एवं अशुभ परिहार के उपायों का वर्णन किया गया है जो मूल ग्रन्थ से देखने योग्य है। उनसठवाँ अध्याय इस अध्याय में भद्राश्व, केतुमाल और कुरुवर्ष का बड़ा मनोरञ्जक वर्णन प्रस्तुत किया गया है / साठवाँ अध्याय इसमें किम्पुरुष, हरिवर्ष, मेरुवर्ष, रम्यक, और हिरण्मयवर्ष का सुन्दर वर्णन है / वर्णन अत्यन्त मनोरम और पूर्ण परिचयात्मक है। एकसठवाँ अध्याय इस अध्याय से स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वन्तर के वर्णन का प्रारम्भ हुआ है। इसमें वरूथिनी नामक अप्सरा और एक ब्राह्मण का संवाद बड़ा रोचक और शिक्षाप्रद है / वरूथिनी के प्रलोभनों और आकर्षणों की उपेक्षा जिस प्रकार ब्राह्मण ने की है उससे चरित्र-रक्षण की सहज प्रेरणा प्राप्त होती है। वरूथिनी की प्रणय-प्रार्थना के उत्तर में ब्राह्मण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अभीष्टा गार्हपत्याद्याः सततं ये त्रयोऽग्नयः / रम्यं ममानिशरणं देवी विस्तरणी प्रिया // 65 // न भोगार्थाय विप्राणां शस्यते हि वरूथिनि !! इह क्लेशाय विप्राणां चेष्टा प्रेत्य फलप्रदा // 7 // परस्त्रियं नाभिलषेदित्यूचुर्गुरवो मम | तेन त्वां नाभिवाञ्छामि कामं विलपशुष्य वा / / 73 // अर्थात् गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, और आहवनीय ये तीन अग्नि ही मेरे आराध्यदेव हैं / अग्निशाला ही मेरा रमणीय स्थान है तथा कुशासन से सुशोभित वेदी ही मेरी प्रिया है / ब्राह्मण के लिये भोग-चेष्टा प्रशस्त नहीं मानी गयी है अपितु धर्मानुष्ठान और कर्तव्यपरायणता की चेष्टा ही प्रशस्त मानी गई है। क्योंकि वह इस लोक में क्लेशप्रद होने पर भी परलोक में उत्तम फल प्रदान करती है। मेरे गुरुजनों ने शिक्षा दी है कि परायी स्त्री की अभिलाषा