________________ ( 86 ) मध्यम, और उत्तम / लघु प्राणायाम में 12, मध्यम में 24 और उत्तम में 36 मात्रायें होती हैं / पलकों को ऊपर उठाकर नीचे गिराने में जो समय लमता है, वही मात्रा कहा जाता है / लघु प्राणायाम से स्वेद, मध्यम से कम्प और उत्तम से विषाद पर विजय प्राप्त होती है / ध्वस्ति, प्राप्ति, संवित् और प्रसाद ये प्राणायाम की चार अवस्थायें होती हैं। ध्वस्ति में शुभ-अशुभ कर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं और चित्त की वासनायें नष्ट हो जाती हैं / प्राप्ति में लोक और परलोक के समस्त भोगों की कामनायें समाप्त हो जाती हैं / साधक अपने श्राप में ही सन्तुष्ट रहने लग जाता है / संवित् में मनुष्य बड़ा प्रभावशाली हो जाता है। उसे ऐसी अतुल ज्ञानसम्पत् प्राप्त हो जाती है कि वह भूत, भविष्यत् , दूरस्थित तथा अदृश्य वस्तुओं का भी दर्शन करने लगता है / प्रसाद अवस्था में मन, बुद्धि, पञ्चप्राण, सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के समस्त विषय प्रसन्न हो उठते हैं | प्राणायाम की सिद्धि तभी सम्भव होती है जब मनुष्य पद्मासन, अर्द्धासन, स्वस्तिकासन आदि अासनों से बैठ कर शरीर को समभाव से रख संयत रूप से योग का अभ्यास करता है / प्राणायाम के अभ्यास के साथ साथ प्रत्याहार, धारणा और ध्यान का अभ्यास करना भी आवश्यक है / मन, प्राण और इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाना प्रत्याहार है, अात्मा में चित्र को स्थिर करने का प्रयत्न धारणा है। श्रात्मा में चित्त की वृत्तियों को प्रवाहित करना ध्यान है / प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान इन चारों का अभ्यास करने से ही चित्त समाहित हो मोक्ष देने वाले सम्यक ज्ञान को पैदा करने में समर्थ होता है। योगाभ्यास के लिये परिमित सात्त्विक श्राहार, शरीर की अश्रान्ति, मन की अव्याकुलता, एकान्त, शान्त, स्वच्छ, और समतल स्थान तथा अनुष्णाशीत समय का होना परमावश्यक होता है। योगाभ्यास के समय कुछ बाधायें भी उपस्थित होती हैं / उनके निवारणार्थ साधक को सदा सजग रहना और आनेवाली बाधा के विरोधी भाव की धारणा से उसे दूर करना आवश्यक है / जैसे कभी उग्र गर्मी की अनुभूति होने लगे तो अपने आप को चारों ओर से हिम से घिरे होने की भावना करे और कड़ी सर्दी की अनुभूति होने पर अपने को निर्धम अग्नि के निकटवर्ती होने वा सूर्य के प्रचण्ड ताप में स्थित रहने की भावना करे | योगाभ्यासी को अपने शरीर को स्वस्थ और सबल बनाये रखना भी आवश्यक है क्योंकि स्वस्थ एवं सबल शरीर ही सारी सफलताओं का मूल है / चञ्चलता का न होना, नीरोग रहना, निष्ठुर न होना, उत्तम सुगन्ध का श्राना, मल-मूत्र में कमी, शरीर में कान्ति, मन में प्रसन्नता और वाणी में