________________ उसकी बात मानकर अलर्क के राज्य पर घेरा डाल उसकी शासनव्यवस्था क पङ्ग बना दिया। फलतः थोड़े ही दिनों में वह धन-जन से क्षीण हो गया। इस घटना से विषण्ण और व्याकुल हो उसने माता के निर्देश को स्मरण किया और माता से दी गई अँगूठी खोली / अंगूठी के भीतर उसे निम्नाङ्कित अनुशासन प्राप्त हुआ। सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं न शक्यते / स सद्भिः सह कर्त्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम् // 23 // कामः सर्वात्मना हेयो हातुं चेच्छक्यते न सः / मुमुक्षां प्रति तत्कायें सैव तस्यापि भेषजम् // 24 // मनुष्य को सर्वथा सङ्ग का परित्याग करना चाहिये, पर यदि यह न सम्भव हो तो सत्पुरुषों का ही सङ्ग करना चाहिये। क्योंकि सत्सङ्ग ही विषयासक्तिरूपी व्याधि का औषध है। इसी प्रकार कामना का भी सर्वथा परित्याग करना चाहिये, किन्त यदि यह भी सम्भव न हो तो केवल मोक्ष की ही कामना करनी चाहिये, क्योंकि मोक्ष की कामना ही विषयकामनारूपी व्याधि का औषध है। माता के इस अनुशासन से अलर्क की आँख खुल गई और वह मोक्षकाम हो सत्सङ्ग की खोज करता महायोगी दत्तात्रेय के निकट पहुँचा और उनसे अपना दुःख दूर करने की प्रार्थना की। दत्तात्रेय ने कहा कि मैं तुम्हारा सारा दुःख अाज ही दूर कर दूंगा पर तुम यह तो बतायो कि तुम्हें दुःख हुअा कैसे ? यह सुन जब अलर्क ने अपने दुःख के कारण पर विचार किया तो उसे ज्ञात हुश्रा कि उसमें तो कोई दुःख है ही नहीं, दुःख तो शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों में है और वह स्वयं उनसे सर्वथा भिन्न है। उसने तो शरीर आदि के साथ अपना झठा तादात्म्य मान कर उनके दुःख को अपना दुःख मान लिया है / इस प्रकार योगी दत्तात्रेय के सन्निधानमात्र से ही उसे स्पष्ट हो गया कि वह सब प्रकार के संग से विवर्जित है, राज्य आदि के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है और सुबाहु, काशिराज तथा उसमें वस्तुदृष्टि से कोई भेद नहीं है / भेद तो केवल उनके शरीरों में है / इसलिए उसने अपने शरीर के साथ अपनी एकता मान कर शरीर की भिन्नता से जो अपना भेद कर लिया है और उसके आधार पर अपने शत्रु, मित्र की कल्पना कर ली है तथा शरीर से सम्बद्ध राज्य आदि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है यह उसकी सबसे बड़ी भूल है और इसी से उसे दुःख है / अतः इस दुःख के आरोप का परित्याग कर अपने आप को सुखी बना लेना उसी के हाथ में है।