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इन्द्रिय-संवर
वर्तमान की इस सृष्टि को कभी देख नहीं पाएगा । वह हमारे विचारों को कभी सुन नहीं पाएगा । वह अपने भावों को कभी व्यक्त नहीं कर पाएगा । क्योंकि वह विकल है । इन्द्रियों से हीन है । और इसलिए दरिद्र है वर्तमान या व्यावहारिक जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए । कितना अच्छा हो कि जिन लोगों ने यह प्रतिपादन किया कि इन्द्रियों को जीतो, उनकी दृष्टि में एक आदमी बहरा, गूंगा अन्धा बन जाए, तो वह सबसे अच्छा जितेन्द्रिय हो जाए । उसके लिए और कुछ करने की जरूरत ही न रहे । जो बहरा जन्मा, गूंगा जन्मा, अन्धा जन्मा वह तो कृतार्थ हो गया । साधना में सफल हो गया और उसकी नैया पार लग गई । जो विकलेन्द्रिय होता है, इन्द्रियों से हीन होता है, इन्द्रियों से शून्य होता है, उसे कोई अच्छा नहीं मानता । भगवान् ने यह भी कहा कि धर्म करो किन्तु तब तक कि जब तक इन्द्रियां ही न हों। क्योंकि इनके बिना धर्म भी नहीं हो सकता, हमारा काम भी नहीं चल सकता । दूसरी ओर इन्द्रियों को जीतो, इन्द्रियों को वश में करो । यह क्या है ? मुझे लगता है कि यह एक आरोप की भाषा है | अर्थात् दोष हम उसे देते हैं जो सीधा हमारे नजदीक होता है । दोष कहां से आ रहा है, उस ओर हम ध्यान नहीं देते ।
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कोई भी आ जाए ।
उनके लिए इनके द्वार
एक नाली है । नाली में से पानी भी आ सकता है, कीचड़ भी आ सकती है और गंदगी भी आ सकती है। नाली का काम तो यह है कि वह अवकाश देती है । आने वाला कोई भी हो । इन्द्रियां और कुछ भी नहीं करतीं । वे केवल अवकाश देती हैं, रास्ता देती हैं, मार्ग देती हैं । चैतन्य की ऊर्मियां आएं, चैतन्य की रश्मियां आएं, तो खुले हैं । वासना की ऊर्मियां आएं तो उनके लिए भी इनके द्वार खुले हैं । ये द्वार हैं, खिड़कियां हैं, कोई भी झांक सकता है । हमने क्या किया ? झांकने वाले को नहीं देखा । झांकने को बुरा मान लिया, झांकने वाले को बुरा नहीं माना, या जिसमें झांका जा रहा है उसे बुरा मान लिया । यह बुराई का आरोप बड़ा विचित्र आरोप हो गया । जाना कहीं चाहिए था और चला कहीं
गया ।
बाप ने कहा- 'बेटा ? तू बहुत बदमाश है और इसीलिए बार-बार तुझे पीटना पड़ता है । मैं जब बच्चा था, कभी अपने बाप से मार नहीं खायी ।' बेटा बड़ा होशियार था । उसने कहा - 'पिताजी, मुझे लगता है कि आपके पिताजी बड़े भले आदमी थे ।'