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महावीर की साधना का रहस्य
है । इन्द्रियों पर हमारे आचार्य इतने बरस पड़े कि कुछ कहा नहीं जा सकता । जितनी गालियां इन्द्रियों को दी गई हैं, उतनी शायद किसी और को नहीं दी गईं। हर किसी ने इन्द्रियों को गालियां दी हैं । और सचाई यह है कि उनके बिना काम भी किसी का नहीं चल सका । इन्द्रियों के प्रति इतना - रोष और आक्रोश प्रकट किया है मानो इनसे बढ़कर हमारा कोई दूसरा शत्रु नहीं है । ऐसे सम्प्रदाय भी रहे हैं। जिनका यह मत था कि आंख देखती है, इसलिए आंख को फोड़ दो। आंख को फोड़ डालना अच्छा है, रखना अच्छा नहीं है । क्योंकि आंख होगी तो विकार आएगा इसलिए अच्छा है कि आंख को फोड़ डालो । कान के पर्दे को फाड़ डालो । इन्हें खराब करने का, इन्हे - विकृत करने का प्रयास किया जाता रहा है ।
कहा – 'मन मन को जीत
मैं जैन परम्परा में देखता हूं तो वहां भी इन्द्रियों के बारे में कई बातें मिलती हैं । केशी स्वामी ने गौतम स्वामी से पूछा - ' आप शत्रुओं को कैसे जीत सकेंगे ? और आपके शत्रु कौन हैं ?' गौतम स्वामी ने हमारा शत्रु है । कषाय हमारा शत्रु है । इन्द्रिय हमारी शत्रु हैं । लेता हूं तो कषाय जीत लिया जाता है । कषाय पर विजय होती है तब इन्द्रियां अपने आप विजित हो जाती हैं। हर धार्मिक कहता है— जितेन्द्रिय बनो । इन्द्रियों को जीतो । इन पर नियंत्रण करो। इनका निग्रह करो । इनको वश में करो ।' मैं नहीं समझ सका, यह अकारण रोष क्यों ? इन्द्रियों का दोष कहां है ? इन्द्रियों का दोष क्या है, यह नहीं समझ में आता । दोष किसी का और निग्रह किसी का । दोष किसी दूसरे ने किया और निग्रह किसी दूसरे का हो रहा है । यह सचमुच बहुत जटिल बात है । हमें इस पर गंभीरतापूर्वक चिंतन करना चाहिए ।
दोष इन्द्रियों का नहीं है । इन्द्रियां द्वार हैं, खिड़कियां हैं । इन खिड़कियों में से चैतन्य की रश्मियां बाहर आती हैं और बाहरी जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करती हैं । यदि ये खिड़कियां नहीं होतीं तो हमारा बाहरी जगत् होता ही नहीं । बिलकुल नहीं होता । हम अकेले में होते । हर आदमी अकेला होता । दूसरा कोई आदमी नहीं होता । या दूसरे के साथ किसी का सम्पर्क नहीं होता । सम्पर्क नहीं होने का मतलब है कि दूसरा कोई नहीं होता । सब कटे हुए और अकेले रहते । कोई भी जोड़ने वाला सूत्र नहीं होता ।
आप कल्पना कीजिए कि एक आदमी गूंगा है, एक आदमी बहरा है और एक आदमी अंधा है । इनका बाहरी जगत् के साथ कैसे सम्पर्क होगा ? वह
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