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प्राथमिकी
महावीर निश्चय और व्यवहार-दोनों नयों से सत्य का निरूपण करते थे । वे नहीं कहते थे कि भीतर ही सत्य है, बाहर सत्य नहीं है अथवा बाहर ही सत्य है, भीतर सत्य नहीं है। उन्होंने अन्तःकरण और संघ-दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित किया था। उनकी साधना का सूत्र था-भीतर को देखते हुए बाहर को देखो और बाहर को देखते हुए भीतर को देखो। सत्य का अतिक्रमण मत करो, साथ-साथ व्यवहार का भी अतिक्रमण मत करो। महावीर की हर बात में अनेकान्त होता था। साधारण पुरुष एकान्त को पसन्द करता है। इसलिए महावीर की बात को कम लोग पकड़ पाते हैं। भीतर की ओर देखने वाले इसलिए नहीं पकड़ पाये कि महावीर बाहर की ओर देखने की बात भी कहते हैं और बाहर की ओर देखने वाले इसलिए नहीं पकड़ पाये कि महावीर भीतर की ओर भी देखने की बात कहते हैं । महावीर के बाद कुछ साधकों ने केवल भीतर को ही मानदण्ड मान लिया इसलिए वे केवल अध्यात्म की भाषा में बोले । इन शताब्दियों के साधक बाहर को ही मानदण्ड मानकर व्यवहार की भाषा में बोल रहे हैं। भीतर और बाहर का सामंजस्य नहीं दिखाई देता, इसलिए अहिंसा और अपरिग्रह की परिभाषाएं जितना बाहर का स्पर्श करती हैं, उतना भीतर का नहीं करतीं। आज के बहुत सारे जैन लोग महावीर की ध्यान-पद्धति को नहीं जानते और बहुत सारे यह भी नहीं जानते कि जैन साधना-पद्धति में ध्यान का बहुत बड़ा स्थान रहा है । इतनी बड़ी विस्मृति का हेतु एकांगी दृष्टिकोण
___जो अज्ञात है, वह सब रहस्य है । जो ज्ञात होने पर भी सार्वजनिक रूप . से प्रकाशित नहीं होता, वह भी रहस्य होता है। साधना दोनों अर्थों में रहस्य है । भगवान् महावीर के युग में जो साधना-सूत्र ज्ञात थे, वे आज समग्रतया ज्ञात नहीं रहे, इसलिए वे अज्ञात हैं । साधना के कुछ सूत्र व्यक्तिशः ज्ञापनीय होते हैं, इसलिए वे सार्वजनिक रूप में ज्ञात नहीं हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उन साधना-सूत्रों के स्पर्श का प्रयत्न है, जो अज्ञात से ज्ञात के तल पर आ गए हैं