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________________ “शरीर का संवर तक पहुंच हो गयी, प्रत्याख्यान हो गया। आत्मा को देख लिया, संयम हो गया । यानी आत्म-दर्शन ही संवर है, आत्म-दर्शन ही संयम है। आत्म-दर्शन ही व्रत और आत्म-दर्शन ही प्रत्याख्यान है। आत्मा का दर्शन नहीं हुआ, आपकी भाषा में संयम हो सकता है, संवर हो सकता है, और व्रत तथा प्रत्याख्यान भी हो सकता है। किन्तु आत्म-दर्शन के बिना वहां तक कोई भी नहीं पहुंच पाता। यह थी संवर की साधना, काय-संवर की साधना। काय-संवर आत्मदर्शन के बिना नहीं हो सकता; और आत्म-दर्शन के बिना वह मोह का धागा, जो उसे पकड़े हुए है, टूट नहीं सकता। इसलिए उस धागे को क्षीण और पतला करने के लिए आत्म-दर्शन की आवश्यकता है। आत्म-दर्शन जैसे ही होगा, मन हमारा शान्त हो जाएगा, शरीर हमारा शान्त हो जाएगा और वाणी शान्त हो जाएगी। क्योंकि आत्मा शरीर, वाणी और मन–तीनों से अतीत है । जो शरीरातीत है, उसका दर्शन शरीरातीत होकर ही कर सकते हैं । निष्क्रिय का दर्शन हम निष्क्रिय बनकर ही कर सकते हैं। यह है संवर की साधना का रहस्य ।। भगवान् से पूछा गौतम स्वामी ने—'काय गुत्तीएणं भंते ! जीवे कि जणयइ...' भगवन् ! कायगुप्ति के द्वारा जीव क्या प्राप्त करता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-'काय गुत्तीएणं जीवे संवर जणयई'—कायगुप्ति के द्वारा जीव संवर को प्राप्त होता है । संवर से जीव पाप-आश्रव का निरोध कर देता है, दरवाजे को बन्द कर देता है । जो दरवाजा आने के लिए खुला है उसमें से कोई भी आ सकता है। हवा के द्वारा सुगंध आ सकती है तो हवा के द्वारा धूल भी आ सकती है । हवा के साथ में सुगंध आ सकती है तो हवा के साथ में दुर्गन्ध भी आ सकती है। जो आने को है तो उसके साथ कोई भी आ सकता है । दरवाजे से आदमी आ-जा सकता है, तो दरवाजे से कुत्ता भी आजा सकता है । कोई भी आ-जा सकता है। अगर यह दरवाजा खुला है तो पुण्य आएगा तो पाप भी आएगा। और सूक्ष्म शरीर के लिए, कर्म-शरीर के लिए, पुण्य और पाप दोनों सहारा देने वाले हैं। दोनों पोषण देने वाले हैं । दोनों उसके लिए टॉनिक हैं । दोनों उसे पोषण और पुष्टि देने वाले हैं । वह तो चाहता है कि दरवाजा हमेशा खुला रहे । पुण्य भी आए और पाप भी आए । दोनों आते रहें। किन्तु भगवान् महावीर ने सबसे पहले इस दरवाजे को बन्द करने का निर्देश दिया कि काय का संवर करो, और इस दरवाजे
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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