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________________ जागरिका १७ मिला । उसने देखा और देखते ही उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, “तुमने मेरा कपड़ा पहन लिया । तुमने कहां से चोरी की है ? मैं कई दिनों से ढूंढ़ रहा हूं । मेरा कपड़ा नहीं मिला ।" वह आवाक् रह गया । यह कैसे ? मैंने कभी चोरी नहीं की । और यह मुझ पर चोरी का आरोप कैसे लगा रहा है ? तत्काल उसने देखा । अपना चिह्न देखो | चिह्न देखा तो सचमुच सकुचा 1 गया । उसने कहा, "कपड़ा मेरा नहीं है, किसी दूसरे का है । धोबी ने जैसे लाकर दिया, मैंने पहन लिया । चिह्न देखा नहीं और अपना मानकर पहन लिया ।” उसने स्वीकार किया, “सचमुच तुम ठीक कह रहे हो, यह कपड़ा मेरा नहीं है । मैंने चोरी नहीं की, फिर भी मैं यह कहता हूं कि कपड़ा मेरा नहीं है ।" कपड़ा उसे खोलकर देना पड़ा । हम भी बहिर्मुखता के कारण दूसरे के कपड़ों को पहने चले जा रहे हैं और अपना मानते चले जा रहे हैं । हम मानते हैं कि ये कपड़े हमारे हैं । यह राग-द्वेष की परिणति, अहं और द्वन्द्व की परिणति, यह विकल्प चेतना की परिणति, संकल्प और विकल्प की परिणति, ईर्ष्या और घृणा की परिणति, सुख और दुःख की परिणति – ये जो परिणतियां हैं, उन्हें हम अपना अस्तित्व जैसा मानकर ही चल रहे हैं । अपने अस्तित्व में शामिल कर रहे हैं और उसका अंग मानकर चल रहे हैं । यह है हमारी विकल्प चेतना, बहिर्मुखी चेतना । किंतु जैसे ही अन्तर्मुखी चेतना का विकास या उदय होता है, कोई आकार हमें कहता है कि जिन कपड़ों को तुमने ओढ़ रखा है, ये तुम्हारे नहीं हैं, ये दूसरो के हैं । जिनको तुम अपना मान रहे हो, ये तुम्हारे नहीं हैं, तो कभी-कभी आंख खुल जाती है | हम अपने चिह्न को देखने का प्रयत्न करते हैं तो हमें लगता है कि यह चिह्न मेरा नहीं है । किसी बात पर खुश होना, नाखुश होना, यह मेरा चिह्न नहीं । किसी बात में सुख मानना, किसी बात में दुःख मानना, यह चिह्न मेरा नहीं है । जब अपने चिह्न की अनुभूति हमें होने लग जाती है, यह लगता है कि यह चिह्न किसी दूसरे का है तब हमारी जागृति प्रकट होती है, अन्तर्मुखता प्रकट होती है और हम जागृति के क्षण में चले जाते हैं । दो चेतना हैं - एक सुषुप्ति की चेतना और एक जागृति की चेतना । एक बहिर्मुखता की चेतना और एक अन्तर्मुखता की चेतना । एक वैराग्य - भाव की चेतना और एक अन्तर आत्मभाव की चेतना । इस पर हमने थोड़ा-सा समझने का प्रयत्न किया है । तीसरी है वीतरागता की चेतना । वीतरागता की चेतना सहज समाधि है । यह निरुपाधिक की चेतना है । यहां हमारी
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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