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जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण • पूजयपाद का 'समाधिशतक' पतंजलि के योगदर्शन' से पहले लिखा गया या बाद में ? क्या उसकी समाधि योगवर्शन को समाधि से भिन्न है ? ___महर्षि पतंजलि का समय ई० पू० दूसरी शताब्दी माना जाता है । पूज्यपाद का समय है विक्रम की छठी शताब्दी । अतः 'समाधिशतक' 'योगदर्शन' के सात-आठ सौ वर्ष पश्चात् लिखा गया। 'समाधि' शब्द जैन परम्परा में बहुत पहले से प्रचलित था । आगम सूत्रों में बहुत बार उसका प्रयोग हुआ। 'समाधि' और 'ध्यान' दोनों के पर्यायवाची शब्द है । 'समता' और 'सामायिक' उनमे भिन्न अर्थ वाले नहीं हैं। योगदर्शन में वर्णित समाधि की तुलना शुक्लध्यान से की जाती है। • क्या जैन परम्परा में विपश्यना का उसी रूप में उल्लेख है जैसा बौद्ध परंपरा में है या किसी दूसरे रूप में ?
___ ध्यान शब्द 'ध्य चिन्तायाम्' धातु से बना है । इसका आधुनिक अर्थ हैचिन्तन करना । प्राचीन रूढ़ि के अनुसार इसके दो अर्थ हैं-देखना और चिंतन करना । देखना और विपश्यना एक ही बात है। देखने के दो रूप हो सकते हैं—बाहर को देखना और भीतर को देखना । भगवान् महावीर ध्यान करते समय एक पुद्गल या परमाणु पर दृष्टि टिकाते थे, अनिमिष नयन रहते थे । आचारांग सूत्र में 'लोगविपस्सी' शब्द मिलता है । इसका अर्थ हैलोक की विपश्यना करने वाला, लोक को देखनेवाला । भगवान् महावीर ध्यान करते समय ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिरछे लोक को देखते थे । लोक का अर्थ जगत् भी हो सकता है और प्रकरणानुसार शरीर भी हो सकता है। शरीर के पक्ष में ध्यान करनेवाला ऊपर से नीचे तक, सिर से अंगुष्ठ तक शरीर की विपश्यना करता है । समूची ध्यान परम्परा में बाहर और भीतर देखने का क्रम मिलता है । उसका नाम चाहे कुछ भी रहा हो। आचार्य हेमचंद्र ने शरीर को ऊपर से नीचे तक देखने को, मन या प्राण के संक्रमण को 'उत्तर-अधर-प्राणायाम' कहा है। याज्ञवल्क्य गीता में भी उसका उल्लेख मिलता है। ध्यान की प्रक्रिया मुख्यतः दर्शन की प्रक्रिया है । सुनना और देखना-ये ध्यान के मुख्य तत्त्व हैं। शब्द पर मन को लगाना या अनाहत नाद सुनना—ये ध्यान के साथ जुड़े हुए हैं । संभवतः हठयोग का विकास होने के बाद ये जुड़े हैं । ध्यान का प्राचीन रूप देखना ही रहा है। • महाप्राण ध्यान की प्रक्रिया क्या है ?
महाप्राण ध्यान की प्रक्रिया का वर्णन कहीं नहीं है । इसलिए उसके विषय