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भगवान् महावीर के समय में हजारों-हजारों मुनि एकान्तवास में, पहाड़ों में, गुफाओं में, शून्यगृहों में, उद्यानों में ध्यानकील रहते थे । उनके बाद भी दूसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक यह स्थिति चलती रही । उसके उतरार्द्ध में कुछ परिवर्तन आया। उस परिवर्तन के ये कुछ कारण बने
१. प्राकृतिक प्रकोप ।
२. राजनैतिक उथल-पुथल ।
३. संघ सुरक्षा व लोक-संग्रह का आकर्षण ।
वीर निर्वाण के दो सौ वर्ष बाद एक द्वादशवर्षीय भयंकर अकाल पड़ा। उस समय मगध आदि जनपदों में जटिल स्थिति बन गई । आज यातायात के प्रचुर साधन हैं, फिर भी अकाल का सामना करने में कठिनाई का अनुभव होता है । उस समय यातायात के साधन बहुत कम थे । कोई शक्तिशाली केन्द्रीय शासन नहीं था । बाहर से सहायता लेने की संभावनाएं भी कम थीं । उस स्थिति में लगातार वर्षों तक अकाल होना कितनी भयंकर बात है । उस समय हजारों मुनि, जो श्रुत के पारगामी थे, अनशन कर दिवंगत हो गए । जैन संघ में बहुत बड़ी रिक्तता आ गई ।
दूसरा कारण बना राजनैतिक उथल-पुथल । नंद वंश और उसके बाद मौर्यवंशी सम्राट् चन्द्रगुप्त के शासनकाल में पाटलिपुत्र तथा मगध में जैन संघ के लिए जो अनुकूलता थी वह बाद में नहीं रही । श्रुतकेवली स्थूलिभद्र के प्रधान शिष्य महागिरि और सुहस्ती का विहार क्षेत्र मालव प्रदेश हो गया। जैन श्रमणों का मुख्य विहार- क्षेत्र मगध और पाटलिपुत्र था, वह बदल गया । दक्षिण भारत और मालव प्रदेश - यह मुख्य बिहार क्षेत्र बन गया । सम्राट् अशोक के शासनकाल में बौद्ध संघ प्रभावशाली हो गया । इस परिवर्तन ने साधना की चालू परम्परा में एक व्यवधान उत्पन्न कर दिया ।
तीसरा कारण बना-संघ - रक्षा का प्रश्न । यह दो ओर से उपस्थित हुआ | दुष्काल में ज्ञानी मुनियों का स्वर्गवास संघ के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बना । यह माना जाता था और उसमें वास्तविकता भी है कि श्रुत
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