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महावीर की साधना का रहस्य
क्रम से इस गांठ को खोला है, ऐसा अन्यत्र दुर्लभ है । यह सुनने में गर्वोक्तिसी लगती है, पर है यह सच । जिस पराक्रम के साथ, जिस पुरुषार्थ के साथ भगवान् महावीर ने चारित्र का दीप प्रज्वलित किया, शायद ऐसा अन्यत्र दुर्लभ ही मिलेगा । उन्होंने सारे जीवन की संघर्ष भूमि में पराक्रम और पुरुपार्थ को बहुत महत्त्व दिया । कोई भी साधक इस साधना के समरांगण में, संघर्ष - भूमि में, इतने पराक्रम का प्रयोग नहीं करता तो न वह महावीर बन सकता है और न महावीर की भूमिका तक पहुंच सकता है और न उस समाधि के बिंदु तक पहुंच सकता है जो कि चारित्र की समाधि का बिंदु है । इसमें महावीर का मार्ग सबसे कठोर मार्ग है । इसे कहा गया है— 'दुरनुचरे मग्गे' - ' – इस पर चल पाना बड़ा कठिन है । क्यों कठिन है ? 'दुरनुचर' का तात्पर्य दूसरा है, इसे हम समझें ।
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हठयोग के अनुसार प्राण की साधना करने वाला साधक मूलाधार से चलता है और एक-एक चक्र की साधना करता हुआ, सहस्रार चक्र तक पहुंचने का प्रयास करता है, उसकी साधना करता है । यह कठोर मार्ग है । राजयोग की साधना करने वाला आज्ञाचक्र से साधना प्रारम्भ करता है और आगे चला जाता है । यह भी कठोर मार्ग है । किन्तु अध्यात्म योग की साधना करना सबसे अधिक कठोर मार्ग है । इसका साधक किसी बाहरी चीज का सहारा नहीं लेता । वह न तो किसी आसन को मुख्यतः देता है, न प्राणायाम को, मूलाधार चक्र से प्रारम्भ कर सहस्रार चक्र तक पहुंचने का प्रयत्न करता है, न आज्ञा चक्र से चलकर सहस्रार चक्र तक पहुंचने का प्रयास करता है । वह केवल चैतन्य के अनुभव के सहारे आगे बढ़ता है । केवल आत्मा की शक्ति के सहारे, बिना बाह्य वस्तुओं का आलम्बन लिए, आत्मा को शक्तिशाली बनाकर उसको उस साधना में झोंक देना, सबसे कठिन साधना पद्धति है । महावीर ने इसका आलम्बन लिया, इसलिए इसका मार्ग दुरनुचर है । चारित्र का मार्ग कठोरतम मार्ग है और इसलिए इसमें पराक्रम को अधिक प्रज्वलित करना पड़ता है, चैतन्य को अधिक प्रज्वलित करना होता है, दस-पांच का सहारा मिल जाए तो व्यक्ति सोचता है, चलो वह भी सहारा देने वाला है; यह भी सहारा देने वाला है । चारों तरफ सहारे सहारे हैं, तब खुद को उतना खपना नहीं पड़ता । किन्तु राणा प्रताप जैसी स्थिति आ जाए, जंगल में रहना और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ना - यह बहुत कठिन कर्म है। बच्चों को खाने के लिए घास-पात की रोटी मिले और स्वतंत्रता की लड़ाई चले,