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दर्शन समाधि
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वास्तव में सबसे पहले विचिकित्सा छूटनी चाहिए । इसीलिए उचित ही कहा है - 'नादंसणिस्स नाणं - जिसमें दर्शन नहीं, श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं, साक्षात्कार नहीं, उसमें ज्ञान भी नहीं है । जिसमें ज्ञान नहीं है, उसमें चरित्र नहीं हो सकता - 'नाणेण विद्य न हुंति चरणगुणा ।' ज्ञान समाधि और चारित्र समाधि – ये सब दर्शन के बाद होने वाली समाधियां हैं। सबसे पहले दर्शन की समाधि होनी चाहिए क्योंकि इतरभाव सहन नहीं होता । जब तक कैंसर है, व्रण है, तब तक समाधि कैसे होगी ? तीन शल्य हैं- - माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य । जब तक मिथ्यादर्शन शल्य भीतर विद्यमान है तब तक समाधि की बात या कल्पना निरर्थक है । इसके रहते समाधि कभी नहीं आ सकती । समाधि के लिए पहली शर्त है कि शल्य न रहे । शल्यचिकित्सा से घाव भर जाता है । कोई पीड़ा नहीं होती । जब पीड़ा नहीं होती है तो समाधि अवश्य प्राप्त होती है ।
प्राचीन काल में अनेक दार्शनिकों के समक्ष यह प्रश्न आया कि धर्म का मूल क्या है ? भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से इस पर विचार हुआ और भिन्न-भिन्न समाधान प्रस्तुत हुए। किसी ने कहा- 'विणयमलो धम्मो' - धर्म का मूल विनय है । किसी ने कहा- 'दयामूलो धम्मो ' - धर्म का मूल दया है । आचार्य कुन्दकुन्द के समक्ष भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ । उन्होंने समाधान की भाषा में कहा - 'वंसणमूलो धम्मों' - धर्म का मूल है दर्शन । जो देखता है वही धर्म को प्राप्त होता है ।
देखना क्या है ? जो अतीत को काटकर, भविष्य को बंद कर, केवल वर्तमान को देखता है, उसका नाम है देखना । उसी का नाम है – साधना । वर्तमान की धारा में अतीत और भविष्य — दोनों की धारा मिले नहीं तो समझ लीजिए कि आपने साधना के क्षेत्र में प्रवेश कर लिया, आपको देखना आ गया। जहां इन तीनों कालों-अतीत, भविष्य और वर्तमान की संलग्नता है, वहीं साधना का सबसे बड़ा विघ्न है । साधना को तीनों कालों को अलगअलग कर देना है, तोड़ देना है । इसमें हमें पूर्ण अनित्यता का सूत्र काम में लेना है |
संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्र नय – ये तीन नय हैं, तीन दृष्टियां है । संग्रहनय की दृष्टि से अभेद का दृष्टिकोण हमारे सामने प्रस्तुत होता है । व्यवहारनय हमें भेद की ओर ले जाता है । ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से केवल वर्तमान ही हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है । केवल वर्तमान, न अतीत और न