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तप समाधि
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में कोई अन्तर नहीं है। मनोवैज्ञानिक चिकित्सक रोगी को बिस्तर पर लिटाकर कहता है-'जो कुछ स्मृति में आए, कहते रहो, कहते चले जाओ। एक घंटा, दो घंटा, एक दिन, दो दिन, दस दिन""कहते रहो, कहते रहो।' रोगी जो मन में आया बाहर फेंकने लगता है, वह कहता चला जाता है। वह बात करता है, फिर कुछ स्मृति में आते ही कह डालता है। फिर कुछ क्षणों तक इधरउधर की बातें करता है और फिर स्मृति का कुछ अंश उगलता है । यह क्रिया चलती जाती है। चिकित्सक बार-बार अनुरोध की भाषा में कहता है-'कहीं छिपाना मत । मन में जो आए, उसे साफ-साफ कह देना। यह मत सोचना कि कहने का परिणाम क्या होगा ? लोगों में अच्छा लगेगा या नहीं? मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा ? मत सोचना ऐसी बातें। बच्चे की भांति सब कुछ उगल देना।' यथार्थ में यही प्रायश्चित्त की प्रक्रिया है। गुरु कहता है शिष्य से-'दोष हुआ है, भूल हुई है, घबराओ मत । उसे खोकलर कह दो मेरे सामने । गांठ रहने ही न पाए मन में, इस प्रकार उसे खोल देना । छिपाना मत । छिपाओगे तो नयी गांठ बन जाएगी। नहीं छिपाओगे तो जो गांठ बनी है, वह खुलती चली जाएगी और मन निर्मल हो जाएगा। सावधान रहना । मन में माया न आ जाए। मन में लोक-लाज का भाव न आ जाए। मन में वंचना का भाव न आ जाए। विशुद्ध चित्त होकर, भूल की प्रक्रिया को आदि से अन्त तक कह दो।' वह सारी बातें खोलकर रख देता है। रोगी चिकित्सक के सामने जीवन की सारी बातें उगल देता है । मनोवैज्ञानिक चिकित्सक समझ लेता है कि किस विचार से इसके मन में ग्रन्थिपात हुआ है ? किस कारण से ऐसी स्थिति पैदा हुई है। वह कारणों का विश्लेषण कर चिकित्सा के निर्देश देता है और वह स्वस्थ हो जाता है ।
प्रायश्चित्त की भी यही प्रक्रिया है । यह वास्तव में शोधन की प्रक्रिया है, ग्रन्थि-विमोचन की प्रक्रिया है । गांठ को खोलने की प्रक्रिया मानसिक स्तर पर ही घटित होती है। वह मानसिक परिवर्तन या स्वभाव-परिवर्तन के स्तर पर ही घटित होती है । इसलिए यह अन्तर तप है, बाह्य तप नहीं है। विनय
यह भी अन्तर् तप है । हमने विनय का एक अर्थ पकड़ रखा है । वह अर्थ है-विनम्रता। यह विनय का एक अर्थ है, किन्तु यह अर्थ विनय की समग्रता का वाचक नहीं है। महावीर की वाणी में विनय का जो समग्र रूप