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तप समाधि
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पहली पद्धति का नाम है बाह्य तप और दूसरी का नाम है आन्तरिक तप । आन्तरिक तप की पद्धति में स्थूल शरीर को बीच में नहीं लाया जाता, सीधा कर्म शरीर या मानस शरीर को प्रभावित किया जाता है । आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा – ' धुणे कम्पसरीरगं' – कर्म शरीर को धुन डालो | यह आन्तरिक तप की प्रक्रिया है ।
तप का यदि साहित्यिक भाषा में अनुवाद किया जाए तो उसका अर्थ होगा — आन्दोलन । एक आन्दोलन पैदा कर देना, एक प्रकम्पन या हलचल पैदा कर देना, इसका नाम है-तप । आन्दोलन के बिना जमे हुए संस्कारों की निर्जरा नहीं होती । जहां जिस चीज को बाहर निकालना है, रेचन करना है वहां तीव्र प्रकम्पन पैदा करना होगा । हलचल करनी होगी । आन्दोलन के बिना जमी हुई चीज उखड़ेगी नहीं । यह है तप का काम । तप एक आन्दोलन है । आन्दोलन तो हमारे शरीर में पहले से ही चालू है । तप का अर्थ हैआन्दोलन के प्रति आन्दोलन । आन्दोलन के विरोध में आन्दोल | पतंजलि ने कहा था- ' -' वितर्के प्रतिपक्ष भावनम् ।' जहां दोष है वहां विपक्ष की भावना करो । वितर्क का अर्थ है - दोष । हिंसा, घृणा आदि दोषों को समाप्त करना हो तो प्रतिपक्ष की भावना करो। उनके विरोध में आन्दोलन प्रारम्भ कर दो । तप विरोधी आन्दोलन है । हमारी सक्रियता दूसरी दिशा में बही जा रही है, उसके प्रति विरोधी आन्दोलन छेड़ देना, इसका नाम है तप ।
अब प्रश्न होता है चुनाव का कि इन पद्धतियों में से हम किसे स्वीकार करें ? यह रुचि और क्षमता का विषय है । उसी पर आधारित है । सीधा सूक्ष्म शरीर पर प्रहार करना, कर्म शरीर के प्रति आन्दोलन करना कठिन कार्य है । सब की इसके प्रति रुचि भी नहीं होती । लोग तो यह देखना चाहते हैं कि बना क्या ? मिला क्या ? क्या हुआ ? मूलरूप चाहते है, सूक्ष्मरूप नहीं चाहते । वैसे लोग बाह्य तप करते हैं । जो तत्त्वदर्शी और आत्मज्ञानी होते हैं वे बाह्य तप का आलम्बन नहीं लेते। वे सीधा कर्म शरीर को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं । इसी आधार पर हठयोग और राजयोग की पद्धतियां चलती हैं । हठयोग स्थूल शरीर को प्रभावित करने की प्रक्रिया है महावीर ने किसी एक ही विचार को मान्यता नहीं दी । उनका दृष्किोण सर्वग्राही था । जब सब लोग एक रुचि के नहीं, एक क्षमता के नहीं, तब फिर एक आलम्बन कैसे हो सकता है ? संसार में भिन्न-भिन्न रुचि के लोग हैं। कुछ लोग ध्यान नहीं कर सकते, तपस्या कर सकते हैं, उपवास नहीं कर