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________________ २१२ महावीर की साधना का रहस्य उसका मन भी थे । वे भी विचित्र प्रक्रियाओं का अवलंबन लेते थे । ऐसी परीक्षाएं, ऐसी कसौटियां थीं कि सामान्य आदमी वैसा कर नहीं सकता । सामान्य गुरु यदि वैसा करे तो शिष्य उसे स्वीकार कर ही नहीं सकता । किन्तु इन प्रयोगों को क्रियान्वित करने वाले गुरु भी दूसरे प्रकार के थे तो उन प्रयोगों में से गुजरने वाले शिष्य भी दूसरे प्रकार के होते थे । तात्पर्य यह है कि गुरु और शिष्य - दोनों खाली होते थे । यदि भरा हुआ आदमी आदेश देता और भरा हुआ आदमी आदेश मानने वाला होता तो परस्पर में लड़ाई या गाली-गलौज अवश्य होता । दोनों ओर से खालीपन था । जो आदेश दे रहा था उसका मन भी खाली था और जो आदेश अस्वीकार कर रहा था, खाली था । उधर भी विनय था और इधर भी विनय था । क्या विनय कभी एकपक्षीय हुआ है ? कभी नहीं । यह तो हमारा व्यवहार है कि हम विनय को भी किसी के 'प्रति' कर देते हैं। विनय किसी के प्रति नहीं होता । दूसरे के प्रति होने वाला केवल व्यवहार होता है, विनय नहीं होता कभी । दूसरे शब्दों में उसे लोकोपचार कहा जाता है । भगवान् महावीर की भाषा में जो दूसरों के प्रति होता है वह होता है लोकोपचार । वह यथार्थ में विनय नहीं है । वह तो लोक का व्यवहार है । विनय का वास्तविक अर्थ है-अपने आपको बिलकुल खाली कर देना, अहं से मुक्त कर देना, केवल अपने स्वरूप की स्थिति में चला जाना, बाहर से जो कुछ भरा हुआ है उससे मुक्त हो जाना । इतना रेचन करना पड़ता है कि मन खाली हो जाए । विनय की सारी प्रक्रिया रेचन की प्रक्रिया है । विनय में कषाय का विवेक होता है । विवेक का अर्थ है— पृथक् करना । पृथक् करने का अर्थ है - रेचन करना, निकालना | गेहूं से कंकरों का विवेचन करना यानी पृथक् करना । निकाल देना । दो चीजें जो मिल गई हैं, उन्हें अलग-अलग करना होता है और जो भीतर चला जाता है उसका रेचन करना होता है । विनय की प्रक्रिया रेचन की प्रक्रिया है । अहं जो हमारे भीतर घुस गया, उसका रेचन करना, उसे निकालना, इसी का नाम है 'विनयनम्' । जब तक आदमी खाली नहीं होता तब तक विनय के द्वारा जो समाधि प्राप्त होनी है वह प्राप्त नहीं होती । विनय समाधि की चार अपेक्षाएं हैं १. गुरु के अनुशासन को सुनना । २. गुरु जो कहता है उसे स्वीकार करना । ३. गुरु के वचन की आराधना करना ।
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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