SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनय समाधि २११ एक गुरु ने अपने शिष्य से कहा, 'जाओ, सांप के दांत गिन आओ ।' भयंकर बात थी । हितैषी ऐसी बात नहीं कह सकता । भला एक हितैषी व्यक्ति ऐसी बात कैसे कह सकता है कि जाओ, सांप के दांत गिन आओ ? नहीं कह सकता । किन्तु गुरु ने यह आदेश दिया । शिष्य ने सुना । उसके मन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई । उसके अहं पर कोई चोट नहीं लगी । ऐसा क्यों हुआ ? वह इसलिए घटित हुआ कि शिष्य का मन खाली था । यदि उसका मन भरा हुआ होता तो वह सोचता - गुरु तो हत्यारे हैं। मुझे मार डालना चाहते हैं । कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष मौन के मुंह में ढकेलना चाहे, उसके प्रति क्या भाव आएगा । यही तो आएगा कि गुरु मुझे मार डालना चाहते हैं। शिष्य के मन में यह भाव नहीं आया । शिष्य गया । सांप फुंफकार उठा । फिर भी शिष्य ने दांत गिनने का प्रयत्न किया । सांप ने डंक मारा । शिष्य ने प्रयत्न नहीं छोड़ा । सांप ने फिर डसा । फिर भी उसके मन में कुछ भी नहीं आया, क्योंकि वह भरा हुआ नहीं था । यदि वह भरा हुआ होता तो निश्चित ही दूसरी बात होती, वह दूसरा ही करता । वह तो बिलकुल खाली था । जो खाली होता है उसे चलाओ वैसे चल जाता है । बौद्धों में जैन संप्रदाय - ध्यान संप्रदाय है । वह साधना का संप्रदाय है । उस संप्रदाय में साधना करने आया है कोई शिष्य । मौका मिलते ही गुरु ने उसे उठाया और पटक दिया नीचे । क्या वे मारना चाहते थे उसे ? क्या उसके शरीर को तोड़ना चाहते थे ? नहीं । कुछ भी नहीं । वे तोड़ना चाहते थे उसे जो नहीं टूट रहा था । शिष्य का अहं नहीं टूट रहा था । वे चाहते थे उसे तोड़ना । वे चाहते थे कि ऐसा क्षण आए और वह टूट जाए । उन्होंने शिष्य को नीचे फेंका । वह धड़ाम से नीचे गिरा । कुछ चोट आयी । उसने फिर जागृत अवस्था में कहा - 'जो काम इतने वर्षों की साधना से नहीं हुआ, वह एक क्षण में घटित हो गया । मैं किसी भी क्षण 'मैं' से परे नहीं जा रहा थी । मैं हर वक्त 'मैं यह कह रहा हूं', 'मैं खा रहा हूं', 'मैं ध्यान धर रहा हूं', 'मैं सोच रहा हूं', 'मैं चिन्तन कर रहा हूं' - इस प्रकार सर्वत्र 'मैं-मैं' चल रहा था, किन्तु जिस गुरु ने मुझे नीचे पटका, उसी क्षण मेरा 'मैं' टूट गया । उस समय मुझे बोध ही नहीं रहा कि 'मैं गिर गया हूं । सब समाप्त हो गय। । ' 'मैं' को तोड़ने का यह प्रकार विचित्र है किन्तु कुछ साधक इसका प्रयोग करते थे । ऐसे भी साधक थे जो इससे भिन्न प्रयोग करके भी 'मैं' को तोड़ते
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy