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विनय समाधि
नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था-"मेरे शब्दकोश में 'असंभव' जैसा शब्द है ही नहीं।" इस बात को बहुत मूल्य दिया जाता रहा है। किंतु ऐसा कहने का साहस एक राजनेता ही कर सकता है, साधक नहीं। 'कुछ भी असंभव नहीं'-मनुष्य यह कह नहीं सकता। जहां मनुष्य के कर्तृत्व की प्रेरणा है, वहां यह निश्चित है कि कुछ संभव है और कुछ असंभव । दोनों साथ-साथ चलते हैं। सब कुछ असंभव भी नहीं है तो सब कुछ संभव भी नहीं है । यदि असंभव जैसा कुछ भी नहीं होता तो नेपोलियन आज भी विद्यमान होता । हर आदमी बूढ़ा बनता है, संभव नहीं है कि वह सदा जवान ही रहे। हर आदमी बीमार बनता है, संभव नहीं है कि वह सदा निरोग ही रहे। हर आदमी मरता है, संभव नहीं कि वह सदा जिंदा ही रहे ।
_ 'संभव और असंभव सब कुछ है, पर मेरे शब्दकोश में कुछ भी असंभव नहीं'—यह अहं के वातायन से ही निकल सकता है । इस अहं से कौन पीड़ित नहीं है । दिन-प्रतिदिन हमारे भीतर एक प्रकार का जमाव होता चला जाता है और हम उससे भर जाते हैं । अहं का जमाव होता है और हम अहं से भर जाते हैं। जहां अपने स्वरूप का प्रश्न है, अपने अस्तित्व का प्रश्न है, हम भरे हुए होना नहीं चाहते, किंतु ऐसा होता है कि हम भर जाते हैं। जितना भराव होता है उतनी ही बेचैनी बढ़ती है, हमारी अशांति बढ़ती है। जब मनुष्य के मन में यह आया कि बेचैनी, अशांति मिटनी चाहिए, मन की यह अशांति
और व्याकुलता मिटनी चाहिए, कम होनी चाहिए, तब खोज प्रारंभ हुई । फलस्वरूप ऋषियों ने, मर्मज्ञ आचार्यों ने कहा-तुम विनम्र बनो अर्थात् खाली हो जाओ। विनय का मतलब है खाली होना । जब तक भरे रहोगे, तब तक तुम्हारी बेचैनी मिटेगी नहीं।
भराव दो ओर से होता है, एक भराव राग से दूसरा द्वेष से। दूसरे शब्दों में एक भराव प्रियता से और दूसरा अप्रियता से । हमें कुछ प्रिय लगता है और कुछ अप्रिय । हम कुछ को प्रिय मान लेते हैं और कुछ को अप्रिय । इस प्रियता और अप्रियता—दोनों ओर से कुछ आता है और हमारे भीतर