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________________ १६६ महावीर की साधना का रहस्य चैतन्यानुभव (वीतराग चेतना) का अभ्यास-क्रम चिन्तन और अन्तर्-दर्शन-मन की ये दोनों क्रियाएं जहां समाप्त हो जाती हैं, मन स्वयं समाप्त हो जाता है । वहां शुद्ध चैतन्य का अनुभव प्रकट होता है । यह वीतराग चेतना का अनुभव है। इसे समाधि भी कहा जा सकता है। इस साधना में अतीत और भविष्य समाप्त हो जाते हैं, केवल वर्तमान क्षण का अनुभव रहता है। वर्तमान का अनुभव दीर्घकाल तक चलता है, वही ध्यान हो जाता है और दीर्घकालीन ध्यान ही समाधि हो जाती है । स्थिर और सुख आसन में बैठे; वर्तमान के संवेदनों या प्रकंपनों को पकड़े; दृढ़तापूर्वक उसे पकड़े रहे। इस अभ्यास से ध्यान की स्थिति बन जायेगी। लम्बे समय तक सधे हुए ध्यान में मन विलीन हो जाता है। मन के विलीन होने पर इन्द्रियां अपने-आप शान्त हो जाती हैं। इन्द्रिय और मन के स्रोत रुक जाने पर शुद्ध चैतन्य का अनुभव शेष रहता है। यह निरालंबन ध्यान है । एकाग्रता या मानसिक ध्यान में कोई-न-कोई आलंवन बना रहता है, फिर यह स्थूल हो या सूक्ष्म । निरालंबन ध्यान में केवल चैतन्य का अनुभव रहता है इसलिए कोई आलंबन नहीं होता । जैन आचार्यों ने इसे नैश्चयिक (वास्तविक) ध्यान कहा है । सालंबन या एकाग्रता का ध्यान व्यावहारिक ध्यान है । निरालंब ध्यान की स्थिति प्राप्त होने पर ध्यान का प्रयत्न नहीं करना होता, वह अप्रयत्न से होता है । एकाग्रता का ध्यान उस तक पहुंचाने के लिए है । इन्द्रिय, मन और कषाय-चेतना के प्रकंपन जैसे-जैसे शान्त या क्षीण होते हैं वैसे-वैसे निरालंबन ध्यान की ओर चरण आगे बढ़ते हैं। क्या प्रारंभ में निरालंब ध्यान संभव है ? कुछ साधकों का अभिमत है कि ध्यान का प्रारम्भ निर्विकल्प साधना से किया जाए । यदि निर्विकल्प स्थिति प्राप्त हो तो बहुत अच्छी बात है। पर उस स्थिति का बहुत सावधानी से विश्लेषण कर लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि मन की शून्यता को हम ध्यान मान बैठे । जैसे सुषुप्त व्यक्ति के ध्यान नहीं होता, वैसे ही चित्त का व्यापार न होने मात्र से ध्यान नहीं होता। निद्रावस्था ध्यान का अभाव है । जागृत अवस्था में मन की प्रवृत्ति न होना भी ध्यान का अभाव है । नवजात, शिशु, मूर्छित, अव्यक्तचेतना, मत्त और सुप्तइनका मन प्रायः स्थगित और अव्यक्त होता है। वह ध्यान नहीं होता। किसी आलंबन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न होकर निष्प्रकम्प बना हुआ मन ही
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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