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महावीर की साधना का रहस्य
व्यक्ति ध्यान की तीसरी अवस्था ( अप्रमत्त चेतना) को प्राप्त करता है ।
कषाय-चेतना के चौथे स्तर के प्रकम्पनों को सर्वथा शांत या क्षीण करने वाला व्यक्ति ध्यान की चौथी अवस्था ( वीतराग चेतना) को प्राप्त करता
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इन सब अवस्थाओं में शरीर और मन की जिन स्थितियों का निर्माण होता है, वे पहले बताई जा चुकी हैं ।
प्रकम्पन-निरोध का अभ्यासक्रम
प्रकम्पन उत्पन्न होने के दो हेतु हैं-वस्तु का योग और कषाय- चेतना । हम किसी वस्तु को देखते हैं और हमारे मस्तिष्क में प्रकम्पन शुरू हो जाते हैं । रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द - इन सबका बोध या अनुभव प्रकम्पनों के द्वारा ही होता है । कभी-कभी वस्तु की उपस्थिति के बिना, केवल कल्पना के द्वारा भी प्रकम्पन उत्पन्न हो जाते हैं । वैज्ञानिक इलेक्ट्रोड के द्वारा भी प्रकम्पन उत्पन्न करते हैं । कभी-कभी आंतरिक संस्कारों के उदबुद्ध होने पर प्रकम्पन स्वतः शुरू हो जाते हैं । इस प्रकार का हमारा जीवन प्रकम्पनों का जीवन है । प्रकम्पन ही संसार है । प्रकम्पन ही सुख-दुःख है । इन प्रकम्पनों की स्थिति में चैतन्य की वास्तविक सत्ता का अनुभव नहीं होता ।
ध्यान का मुख्य कार्य है - प्रकम्पनों की तीव्रता को कम करना । जीवन और प्रकम्पनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है । जीवन रहे और प्रकम्पन न रहे, ऐसा हो नहीं सकता । हमारे जीवन में जितने परिवर्तन होते हैं, जितनी अवस्थाएं घटित होती हैं, वे सब प्रकम्पनों के द्वारा ही होती हैं । ध्यान करने वाला सबसे पहले प्रकम्पनों को रूपान्तरित करता है । इस रूपान्तरण की प्रक्रिया को भावना कहा जाता है । उसके चार प्रकार हैं-ज्ञान-भावना, दर्शनभावना, चारित्र भावना और वैराग्य - भावना । जिस व्यक्ति को आत्मा, मनोवृत्ति और शरीर के भेद का ज्ञान, वस्तुजगत् के प्रति जिसका दृष्टिकोण यथार्थ, आचरण समभावपूर्ण और विषयों के प्रति अनासक्त भाव हो जाता है वह प्रकंपनों को रूपान्तरित करना शुरू कर देता है । राग और द्वेष से होने वा मानसिक प्रकम्पन स्नायविक तनाव उत्पन्न करते हैं । राग उत्सुकता उत्पन्न करता है । उत्सुकता से कंठमणि का स्राव अनियमित हो जाता है । वैराग्य में मन की सम स्थिति रहती है । घृणा की भावना करने वाला बुरे प्रकम्पन उत्पन्न करता है । उनसे शरीर और मन की भावना करने वाला अच्छे प्रकम्पनों को उत्पन्न
दोनों रुग्ण होते हैं । मैत्री करता है । उनसे शरीर