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महावीर की साधना का रहस्य
इसलिए शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिए। शुद्ध चेतना का अनुभव शुद्धता लाता है और अशुद्ध चेतना का अनुभव अशुद्धता लाता है । "
जो द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व की दृष्टि से अर्हत् को जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है । निश्चयनय की दृष्टि से अर्हत् और अपनी आत्मा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है । अर्हत् का ध्यान करने से मोह विलीन होता है।
अर्हत् का ध्यान तुरुषाकार आत्मा के रूप में करना चाहिए। ऐसा करने वाला पूर्वकर्म की निर्जरा करता है । वर्तमान क्षण में राग-द्वेष-रहित होने के कारण कर्म का बंध नहीं करता ।
दशवेकालिक सूत्र में बताया है कि आत्मा से आत्मा को देखें । ध्यानकाल में चिन्तन और दर्शन — दोनों हो सकते हैं किन्तु चिन्तनात्मक ध्यान की अपेक्षा दर्शनात्मक ध्यान अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
आचारांग में बताया गया है कि राग-द्वेष-रहित वर्तमान क्षण का अनुभव करो। इस प्रकार का अनुभव ध्यान और वही लम्बा होकर समाधि बन जाता है ।
आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है कि जब तक थोड़ा भी प्रयत्न है, संकल्प की कल्पना है, तब तक लय की प्राप्ति नहीं हो सकती । लय की प्राप्ति के लिए सुखासन में बैठकर समूचे शरीर को शिथिल करो । चित्त की वृत्ति को रोको मत । कमनीय रूप देखते हुए भी, मधुर शब्दों को सुनते हुए भी सुगंधित द्रव्यों को सूंघते हुए भी, सरस रस का आस्वादन लेते हुए भी, मृदु स्पर्शो का अनुभव करते हुए भी, चित्तवृत्तियों को न रोकते हुए भी राग-द्वेष-रहित क्षण का अनुभव करने वाला उन्मनीभाव को प्राप्त हो जाता है ।"
ये ध्यानसूत्र आवेशशून्य क्षण का अनुभव करने के सूत्र हैं । इनके अनुभव
१. समयसार, १८६
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो । जाणतो दु असुद्ध असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥
२. प्रवचनसार, ८० :
जो जादि अरहंतं, दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्ते हि । सो जादि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्य लयं ॥
३. मोक्ष पाहुड़, ८४ ।
४. योगशास्त्र, १२।२२-२५ ।