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________________ ध्यान १५१ __आचार्य रामसेन के अनुसार एक आलम्बन पर अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध ध्यान है। उसी प्रकार चिन्तन-रहित केवल स्व-संवेदन भी ध्यान 'अमावो वा निरोधः स्यात् स च चिन्तान्तर व्ययः । एकचिन्तात्मको यद्वा, स्वसंविच्चिन्ततोज्झिता।" जैन आचार्य ध्यान को अभावात्मक नहीं मानते। इसके लिए किसी न किसी एक पर्याय का आलम्बन आवश्यक है। स्व-संवेदन ध्यान को निरालम्बन-ध्यान कहा जाता है किन्तु यह सापेक्ष शब्द है। इसमें किसी श्रुत के पर्याय का आलम्बन नहीं होता-इस दृष्टि से यह निरालम्बन है । निरालंबन ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न नहीं होते । उसमें शुद्ध चेतना का उपयोग ही होता है। उसके सिवाय किसी ध्येय का ध्यान नहीं होता। सालंबन ध्यान में ध्येय और ध्यान का भेद होता है । जैन साधकों का अनुभव है कि प्रारम्भ में सालम्बन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए । उसके द्वारा एकाग्रता पुष्ट हो जाए, राग-द्वेष का भाव मन्द हो जाए तब निरालम्बन ध्यानआत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना चाहिए । सालम्बन ध्यान निरालम्बन ध्यान तक पहुंचने के लिए है, यह तथ्य विस्मृत नहीं होना चाहिए । ध्यान सूत्र आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है-आत्मा, ज्ञान, दर्शन और चारित्र संयुक्त होता है। इसलिए उस आत्मा का ध्यान करना चाहिए।' ___इस सूत्र में आत्मा के ध्यान की बात कही गई है। साधना की दृष्टि से आत्मा के तीन प्रकार किए जाते हैं—बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। इन्द्रिय-समूह बहिरात्मा है। आत्मा का अनुभवात्मक संकल्प-शरीर और इन्द्रिय से भिन्न जो ज्ञाता है वह 'मैं हूं'-इस प्रकार का संवेदनात्मक संकल्प अन्तरात्मा है । कर्म-मुक्त आत्मा परमात्मा है ।' इन तीनों में परमात्मा ध्येय है । अन्तर् आत्मा के द्वारा बहिरात्मा को छोड़ना है । परमात्मा का ध्यान करने से आत्मा स्वयं परमात्मरूप बनता है। १. मोक्ष पाहुड़, ६४। २. मोक्ष पाहुड़, ८४ : अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा, हु अप्पसंकप्पो । कम्मकलंक विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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