________________
१२
मनोविज्ञान और चरित्र - विकास
मनुष्य सामाजिक प्राणी है । कोई भी मनुष्य नितांत वैयक्तिक नहीं हो सकता । कोई ऐसा लोहावरण होता जिसमें से छनकर कोई दूसरी चीज व्यक्ति में संक्रांत नहीं होती तो व्यक्ति शुद्ध अर्थ में व्यक्ति रहता । किन्तु ऐसा कोई लोहावरण नहीं है । ऐसा कोई कवच नहीं है जिसे बेधकर बाहर की कोई भी चीज न आए। इसलिए कोई भी व्यक्ति शुद्ध अर्थ में व्यक्ति नहीं है । हर व्यक्ति समाज है । समाज समुदाय है । उस पर दूसरों का प्रभाव पड़ता है, परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है, वातावरण का प्रभाव पड़ता है, परंपरा का प्रभाव पड़ता है, सिद्धांत का प्रभाव पड़ता है, वंशानुक्रम का प्रभाव पड़ता है। और शरीर रचना का प्रभाव पड़ता है । ये सारे प्रभाव मनुष्य पर इन प्रभावों से प्रभावित होकर वह अपने जीवन को चलाता है । हम जिसे कहते हैं मनुष्य का चरित्र, वह चरित्र क्या ? इन सारे प्रभावों, उसके मस्तिष्क पर पड़ने वाले सारे विचार प्रतिबिंबों द्वारा उसकी जिस वृत्ति का निर्माण होता है, वह है चरित्र |
पड़ते है ।
1
मनोविज्ञान ने चरित्र-निर्माण का विश्लेषण किया, उसके कारणों पर विचार किया । उसके अनुसार मनुष्य में दो प्रकार के गुण होते हैं - एक मौलिक मनोवृत्ति और एक अर्जित स्वभाव, या आदतें । कुछ मनोवृत्तियां ऐसी हैं जो प्राणी में मौलिक होती हैं । न केवल मनुष्य में ही बल्कि हर प्राणी में होती हैं । वे किसी बाहर के प्रभाव से नहीं आतीं । जैसे – भूख । भूख मनुष्य की भौलिक मनोवृत्ति है । लड़ाई, यह भी मौलिक मनोवृत्ति है । लड़ना-झगड़ना और संघर्ष करना मौलिक मनोवृति है । काम-वासना मौलिक मनोवृत्ति है । ये कुछ मौलिक मनोवृत्तियां हैं जो मनुष्य में सहज ही पायी जाती हैं । ये बाहर से आती नहीं, अर्जित नहीं होतीं । कुछ अर्जित होती हैं और उन्हीं को हम कहते हैं चरित्र, आदत या स्वभाव । वे अर्जित की जाती हैं । उनके अर्जन में अनेक सिद्धांत काम करते हैं । मनोविज्ञान के अनुसार अर्जित आदतों को तीन भागों में बांटा गया है । एक प्रथम श्रेणी की आदतें जो साधारण आदतें होती हैं और उससे चरित्र का निर्माण होता है, जैसे