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मन का विलय
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सोचते हैं । अगर मन नहीं होता तो शायद हम मन के होने की बात सोचते । किन्तु मन होता है और बहुत बार होता है। इसलिए अब हम इस खोज में हैं कि मन न हो। यह बात क्यों सोचते हैं । इसका भी एक कारण है । मन का होना कोरा मन का होना ही नहीं है। मन का होना बहुत सारी समस्याओं का होना है। क्योंकि जिस यंत्र के द्वारा मन संचालित होता है और मन में जो प्रवाहित होता है, उस नलिका में बहुत सारी चीजें ऐसी भी आती हैं, जिन्हें हम नहीं चाहते । इसलिए हम बहुत बार सोचते हैं कि मन न हो तो बहुत अच्छी बात है ।
__ मन उत्पन्न होता है प्राण के द्वारा। यदि प्राण न हो तो मन उत्पन्न नहीं होता । प्राण मन को उत्पन्न करता है, मन जागृत होता है या निर्मित होता है । जैसे ही मन उत्पन्न होता है, अपना काम करने लगता है, वृत्तियां उस पर हावी हो जाती हैं। उस छोटे-से बच्चे पर वृत्तियां इतनी हावी हो जाती हैं कि बेचारा मन कुछ भी नहीं रहता। इतने आवरण ऊपर आ जाते हैं कि उनके इशारों पर उसे चलना पड़ता है । प्राण और वृत्ति-एक उत्पन्न करने वाला और एक हावी होने वाला, ये दो तत्त्व ऐसे हैं जो मन जैसे भोले बच्चे को दुःखी बना डालते हैं । आप अनुभव करेंगे कि जीवन से बहुत बार आवेग आते हैं। आवेग क्यों आते हैं । क्या आप सोचते हैं कि मन के आवेग हैं ? मन का अपना कोई आवेग नहीं है। किन्तु वृत्तियों में आवेग होते हैं और वे मन पर इस प्रकार छा जाते हैं कि हमें ऐसा लगता है कि सारी खुराफ़ात मन की है। सारी दुष्टता मन की है । पर मन में कोई खुराफ़ात नहीं है । - एक साधक था। उसका नाम था हेकइन उसके पास नोबु सिजे नाम का योद्धा आया । आकर बोला-महाराज ! स्वर्ग क्या है और नरक क्या है ?" योद्धा था, आंखों में उसके लालिमा थी। हाथ में तलवार थी। बड़ी तेजी के साथ आया और तेजी के साथ बोला—'क्या आप बतलाएंगे कि स्वर्ग क्या है और नरक क्या है ?' साधक ने कहा-'तुम बहुत बड़े योद्धा हो, किन्तु लगता है कि तुम्हारी आत्मा में तेज नहीं है । यह तलवार लिये फिरते हो किन्तु आत्मा में तेज कहां है ? तुम्हारे भीतर कोई शक्ति नहीं है, कोई प्राणवत्ता नहीं है । निकम्मे योद्धा बन गए !' 'इतना कहना योद्धा का अपमान करना था । तलवार की निन्दा और योद्धा के पराक्रम की निन्दा, कितनी गहरी चोट थी ! योद्धा इतना उग्र हो गया कि म्यान से तलबार निकाल ली। साधक ने