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________________ १०४ महावीर की साधना का रहस्य बात को कहे बिना रह नहीं सकते। तब उसे बाहर फेंकने की जरूरत हो जाती है । आप यह मत मानिए कि दूसरा होने पर ही कोई बोलता है । बहुत बार ऐसा भी होता है कि मानसिक आवेग की स्थिति में व्यक्ति अपने आप ही गुनगुनाने लग जाता है और अपनी भावना को बाहर फेंकने लग जाता है । यह होता है-स्वगत वार्तालाप । दूसरी बात का जो प्रसंग आता है, वह है 'जनेभ्यो वाक् । यानी जन-सम्पर्क । जन-सम्पर्क में वाक् का प्रयोग उपस्थित होता है । सामने कोई व्यक्ति आया, उससे बात करने की जरूरत होती है । जरूरत नहीं होती तब भी शिष्टाचार निभाने की दृष्टि से कुछ न कुछ बोलना पड़ता है। कोई व्यक्ति सामने आए और वह बात न करे तो वह समझता है कि मैं तो गया और उसने मुझसे कुछ पूछा ही नहीं। वहां व्यवहार का भंग होता है, लोप होता है। इस प्रकार जो व्यवहार की भूमिका पर जीने वाले लोग होते हैं, वे इस बात को पसन्द नहीं करते । इसलिए उन्हें बोलना ही पड़ता है। मैं सोचता हूं कि बहुत सारे धर्मों में जो मूर्ति का विकास हुआ, उससे कठिनाई मिट गई। लोगों का संस्कार पड़ गया कि जो मूर्ति बोलती नहीं है, हम पूजा कर आते हैं, वन्दना कर आते हैं, आरती उतार आते हैं, किन्तु मान और अपमान का प्रश्न नहीं। साधुओं के लिए यह बहुत बड़ी कठिनाई है। उनके पास लोग आएं, तो वे मूर्ति की तरह पूजा करके नहीं चले जाते, वन्दना करके नहीं चले जाते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह जीवन्त प्राणी है। इसलिए वे यह भी अपेक्षा रखते हैं कि सन्त हमसे बोलें । हम वंदना करें, उसे स्वीकारें, हमारी ओर ध्यान दें, हमारी ओर देखें ये सारी अपेक्षाएं रखते हैं। और ये अपेक्षाएं अगर पूरी नहीं होती हैं तो लोग कहते हैं-'क्या बताऊं, साहब ! हम गए थे, महाराज ने हमारी ओर देखा ही नहीं, बोले ही नहीं। फिर हम क्यों जाएं ?' यह व्यवहार की कठिनाई है, इसलिए बोलना ही पड़ता है। आचार्य ने ठीक कहा-'जनेभ्यो वाक् ।' जहां जन-सम्पर्क होगा, वहां वाक् अवश्य होगी। वाक् की अनिवार्यता है, वाक् का प्रयोग करना ही होगा। आप जन-संपर्क भी करना चाहें और वाक् का संयम भी रखना चाहें, ये दोनों बातें साथ में नहीं चल सकतीं। वाक् का संयम करना है तो एकान्तवास में रहना होगा । इसलिए मैं समझता हूं कि मौन का परोक्ष अर्थ हो जाता है, एकान्तवास । एकान्त में रहना, जन-सम्पर्क से दूर रहना, जनता से दूर रहना, परन्तु इतना रहने पर भी कोलाहल से दूर रहना; आज की दुनिया में सम्भव नहीं लगता।
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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