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महावीर की साधना का रहस्य
द्वारा और आकार के
मानिए जितना हम मन से बोलते हैं उतना भाषा से नहीं बोलते । मैं यहां बोल रहा हूं । आप भीतर चले जाइए। आंख मूंद कर बैठ जाइए, आप मेरी Fast सोलह आना सुन रहे हैं तो वहां से आठ आना भी नहीं सुन पाएंगे । हम बोलने वाले के सामने बैठते हैं, इसलिए कि बोलने वाले के मन को पकड़ सकें । मन को पकड़ते हैं हाव-भाव के द्वारा, इंगित के द्वारा । हम मन को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं । आदमी जो बोलता है, उससे ज्यादा उसकी आंखें बोलती हैं, उसका मुंह बोलता है, उसकी अंगुलियां 'बोलती हैं, उसके संकेत बोलते हैं, उसके इशारे बोलते हैं । वे ज्यादा बोलते हैं, और आदमी कम बोलता है । हम बोली को कम पकड़ पाते हैं, संकेत को अधिक पकड़ पाते हैं । मैं किस मुद्रा में हूं, किस प्रकार का भाव प्रदर्शित कर रहा हूं, यदि आप उसे नहीं समझेंगे तो मेरी बात का आठ आना अर्थ भी नहीं समझ पाएंगे । जब मन की ताकत और बढ़ जाती है तब वह अपना भाव सामने वाले पर अपने-आप प्रदर्शित कर देता 1
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आप कल्पना करें कि पति-पत्नी हैं। दोनों में से किसी का वियोग हो गया। अब जो पीछे रहा, वह इतनी समग्रता की स्थिति में चला गया यानी उसका मन जो बिखरा रहता था, सब बातों से हटकर एक चिंता में चला गया । मन में ताकत आयी । क्योंकि उसका बिखराव समाप्त हो गया । उस समय उसके मन में जो चिंता है, कहने की जरूरत नहीं की नया आदमी भी आएगा और उस व्यक्ति को देखेगा तो उसकी आकृति को देखते ही समझ जाएगा कि यह व्यक्ति किस स्थिति में है ? क्या अनुभव कर रहा है ? मन जब शक्तिशाली बनता है, भाषा अपने-आप समाप्त हो जाती है । भाषा की जरूरत तब होती है, जबकि हमारे मन की ताकत कम होती है । देवता की अपनी कोई भाषा नहीं होती। जैन लोगों ने कहा है कि देवता कि अर्धमागधी भाषा होती है । वैदिकों में कहा कि देवता की भाषा संस्कृत भाषा है । अगर कोई इंग्लैण्ड का व्यक्ति होगा तो शायद वह कहेगा कि देवता की भाषा अंग्रेजी होती है । देवता की अपनी कोई भाषा नहीं होती । उनकी ताकत इतनी बढ़ जाती है कि अपनी अन्तर्शक्ति से भी अपने विचारों को प्रकट कर सकते हैं । वे आलम्बन ले सकते हैं परन्तु उन्हें कोई भाषा का बहुत बड़ा सहारा लेना पड़ता है, ऐसी बात नहीं है । केवली के वाक्द्रव्य होता है । मन द्रव्य होता है । किन्तु भाव-मन की जरूरत नहीं होती । दूसरी बात यह है कि भाषा को जो दे रहा है, वह मन दे रहा है । मन में जो बात आयी, वह