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________________ वाक्-संवर-१ हम बोलकर प्रकंपन पैदा करते हैं, और बोले बिना सूक्ष्म ध्वनि पैदा करते हैं । परन्तु नहीं बोलने का पहला लाभ तो यही हुआ कि किसी को बुरी बात नहीं कही । एक बात तो स्पष्ट है । दूसरे में शरीर के अवयवों में जो तनाव आता, जो शक्ति का व्यय होता, वह नहीं हुआ । यह दूसरा लाभ हुआ । और तीसरा लाभ है कि बोलकर जो प्रकम्पन पैदा करता था, वह नहीं करता । ये तीन लाभ तो हैं। किन्तु मौन का जो वास्तविक लाभ होना चाहिए, नहीं बोलने के द्वारा जिस शक्ति के अर्जन का हमारा प्रयत्न और दृष्टिकोण है, वह अर्थ उससे निष्पन्न नहीं होता । जो शांति और जो शक्ति मौन के द्वारा प्राप्त होनी चाहिए, वह निर्विचारिता की स्थिति में ही हो सकती है । विचारयुक्त मौन कुछ लाभप्रद नहीं है, ऐसा तो नहीं है । किन्तु बहुत लाभप्रद होना चाहिए, वह नहीं होता । क्या योग के माध्यम से हृदय और बोलने के केन्द्र को एक कर सकते हैं? · क्या छ: पर्याप्तियों को पांच पर्याप्तियों में बदल सकते हैं ? ऐसा तो सम्भव नहीं है । हमारे शरीर की रचना ऐसी है कि योग के द्वारा उस मूल रचना को नहीं बदला जा सकता, केन्द्रों को नहीं बदला जा सकता । ध्वनि के प्रकोष्ठ मन के प्रकोष्ठों से भिन्न हैं, उन्हें नहीं बदला जा सकता । किन्तु शक्ति में परिवर्तन किया जा सकता है । भाषा और चिन्तन में सामंजस्य स्थापित कर उनकी दूरी को जरूर कम किया जा सकता है । साधारण व्यक्ति के चिंतन में और उसकी भाषा में बहुत दूरी होगी। वह सोचेगा कुछ और बोलेगा कुछ । जो मन में वही वचन में, वही कर्म में, यह है महात्मता । महात्मा कौन होते हैं ? जिसके मन, वाणी और कर्म में एकरूपता आ जाती है । दुरात्मा या छोटी आत्मा कौन होता है ? जिसके मन में कुछ, वाणी में कुछ और आचरण में कुछ । मैं समझता हूं कि देवता, चक्रवर्ती या विशिष्ट ऋद्धि प्राप्त व्यक्तियों लिए यह बात आयी है कि उनके मन भाषा में उनके चिंतन और भाषा में ६७ और भाषा एक होती है । फलित की कोई द्वैत नहीं होता । · क्या भाषा को समाप्त किया जा सकता है ? मन शक्तिशाली होगा तो भाषा समाप्त हो जाएगी। इधर भाषा समाप्त की शक्ति बढ़ती जाती है । देवताओं के मन और कारण यह भी है कि उनके मन में इतनी ताकत मन के द्वारा प्रकट कर सकते हैं । और आप सही होती है और उधर मन भाषा एक होने का प्रमुख आ गयी कि वे अपनी बात
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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