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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा २०-२१
कुशीलपरिभाषाधिकारः - ये पुनः प्राण्युपमर्दैन सातमभिलषन्तीत्यशीलाः कुशीलाश्च ते संसारे एवंविधा अवस्था अनुभवन्तीत्याह
- प्राणियों के घात से जो सुख पाने की इच्छा करते हैं, वे अशील और कुशील हैं । वे संसार में जैसी अवस्था प्राप्त करते है सो शास्त्रकार कहते हैंथणंति लुप्पंति तस्संति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । तम्हा विऊ विरतो आयगुत्ते, दटुं तसे या पडिसंहरेज्जा
॥२०॥ छाया - स्तनन्ति लुप्यन्ते त्रस्यन्ति कर्मिण, पृथक् जन्तवः परिसंख्याय भिक्षुः ।
तस्माद् विद्वान् विरत भात्मगुप्तो, दृष्ट्वा प्रसांश्च प्रतिसंहरेत् ॥ अन्वयार्थ - (कम्मी जगा) पाप कर्म करनेवाले प्राणी अलग अलग (थणंति) रोदन करते हैं (लुप्पंति) तलवार आदि के द्वारा छेदन किये जाते हैं (तस्संति) डरते हैं (तम्हा) इसलिए (विऊ भिक्खू) विद्वान् मुनि (विरतो) पाप से निवृत्त (आयगुत्ते) तथा आत्मा की रक्षा करनेवाला बने (तसे या दटुं) वह त्रस और स्थावर प्राणी को देखकर (पडिसंहरेज्जा) उनके घात की क्रिया से निवृत्त हो जाय । _ भावार्थ - पापी प्राणी नरक आदि में दुःख भोगते हैं, यह जानकर विद्वान मुनि पाप से निवृत्त होकर अपने आत्मा की रक्षा करे । वह त्रस और स्थावर प्राणियों के घात की क्रिया न करे ।
टीका - तेजःकायसमारम्भिणो भूतसमारम्भेण सुखमभिलषन्तो नरकादिगतिं गतास्तीव्रदुःखैः पीडयमाना असह्यवेदनाघ्रातमानसा अशरणाः 'स्तनन्तिः' रुदन्ति केवलं करुणमाक्रन्दन्तीतियावत् तथा 'लुप्पंती'ति छिद्यन्ते खड्गादिभिरेवं च कदर्थ्यमानाः 'त्रस्यन्ति' प्रपलायन्ते, कर्माण्येषां सन्तीति कर्मिण:- सपापा इत्यर्थः, तथा पृथक् 'जगा' इति जन्तव इति, एवं 'परिसङ्घयाय' ज्ञात्वा भिक्षणशीलो "भिक्षुः' साधुरित्यर्थः, यस्मात्प्राण्युपमर्दकारिणः संसारान्तर्गता विलुप्यन्ते तस्मात् 'विद्वान्' पण्डितो विरतः पापानुष्ठानादात्मा गुप्तो यस्य सोऽयमात्मगुप्तो मनो-वाक्कायगुप्त इत्यर्थः, दृष्ट्वा च त्रसान् चशब्दात्स्थावरांश्च 'दृष्ट्वा' परिज्ञाय तदुपघातकारिणी क्रियां 'प्रतिसंहरेत्' निवर्तयेदिति ॥२०॥
टीकार्थ - जो लोग अग्निकाय का आरम्भ करते है और भूत के आरम्भ से सुख पाने की इच्छा करते हैं, वे नरक आदि गतियों में जाकर व्रीव दुःखों से पीड़ित किये जाते हैं । वे असह्य वेदना से सन्तप्तमन तथा शरण रहित होकर केवल करुण रोदन करते हैं तथा तलवार आदि से छेदन किये जाते हैं । इस प्रकार तलवार आदि के द्वारा छेदन किये जाते हुए वे प्राणी डरकर भागते हैं। जो पापकर्म करते हैं, वे कर्मी कहलाते हैं । पाप सहित पुरुषों को कर्मी कहते हैं । इन पापी जीवों की पृथक्-पृथक् यह दशा होती है । प्राणीयों का घात करनेवाले जीव, संसार में पड़े-पड़े क्लेश भोगते हैं, यह जानकर भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करनेवाला, पण्डित तथा पाप करने से निवृत्त एवं मन, वचन और काय को गुप्त करनेवाले साधु त्रस और च शब्द से स्थावर प्राणियों को जानकर उनके घात की क्रिया से निवृत्त हो जाय ॥२०॥
- साम्प्रतं स्वयूथ्याः कुशीला अभिधीयन्त इत्याह
- अब अपने यूथवाले कुशील बताये जाते हैंजे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे, वियडेण साहट्ट य जे सिणाई। जे धोवती भूसयतीव वत्थं, अहाहु से णागणियस्स दूरे
॥२१॥ __ छाया - यो धर्मलब्धं विनिधाय भुक्ते, विकटेन संहत्य च यः स्नाति ।
यो थावति भूषयति च वस्त्रम् अथाहुः स नाव्यस्य दूरे ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो साधु नामधारी (धम्मलद्धं) धर्म से मिले हुए अर्थात् उद्देशक, क्रीत आदि दोषों से रहित आहार को (विणिहाय) छोड़कर (मुंजे) उत्तम भोजन खाता है (वियडेण) तथा अचित्त जल से भी (साहट्ठ) अङ्गो को संकोच कर के भी (जे सिणाइ) जो स्नान करता
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