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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा १९
अपरिक्ख दिट्टं ण हु एव सिद्धि, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा । भूएहिं जाणं पडिलेह सातं, विज्जं गहायं तसथावरेहिं
छाया - अपरीक्ष्य दृष्टं नैवैवं सिद्धिरेष्यन्ति ते घातमबुध्यमानाः । भूतेर्जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातं, विद्यां गृहीत्वा त्रसस्थावरैः ॥
कुशीलपरिभाषाधिकारः
।।१९।।
अन्वयार्थ - (अपरिक्ख दिट्ठ) जलावगाहन और अग्निहोत्र आदि से सिद्धि माननेवाले लोगों ने परीक्षा के बिना ही इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है (ण हु एव सिद्धि) इस प्रकार सिद्धि नहीं मिलती है (अबुज्झमाणा ते घायं एहिंति) वस्तुतत्त्व को न समझने वाले वे लोग संसार को प्राप्त करेंगे (विज्जं गहायं) ज्ञान को ग्रहण करके ( पडिलेह) और विचारकर (तस थावरेहिं भूएहिं ) त्रस और स्थावर प्राणियों में (सात) सुख की इच्छा ( जाणं) जानो ।
भावार्थ - जो अग्रिहोत्र से अथवा जलावगाहन से सिद्धि लाभ कहते हैं, वे परीक्षा करके नहीं देखते हैं, वस्तुतः इन कर्मों से सिद्धि नहीं मिलती है। अतः उक्त मन्तव्यवाले विवेक रहित हैं, वे इन कर्मों के द्वारा संसार को प्राप्त करेंगे? अतः ज्ञान प्राप्त करके त्रस और स्थावर जीवों में सुख की इच्छा जानकर उनका घात नहीं करना चाहिए ।
टीका - यैर्मुमुक्षुभिरुदकसम्पर्केणाग्निहोत्रेण वा सिद्धिरभिहिता तै: 'अपरीक्ष्य दृष्टमेतत्' युक्तिविकलमभिहितमेतत्, किमिति ? यतो 'न हु' नैव 'एवम्' अनेन प्रकारेण जलावगाहनेन अग्निहोत्रेण वा प्राण्युपमर्द्दकारिणा सिद्धिरिति, ते च परमार्थमबुद्ध्यमानाः प्राण्युपघातेन पापमेव धर्मबुद्धया कुर्वन्तो घात्यन्ते - व्यापाद्यन्ते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् प्राणिनः स घातः- संसारस्तमेष्यन्ति, अप्कायतेजः कायसमारम्भेण हि त्रसस्थावराणां प्राणिनामवश्यं भावी विनाशस्तद्विनाशे च संसार एव न सिद्धिरित्यभिप्रायः, यत एवं ततो 'विद्वान्' सदसद्विवेकी यथावस्थिततत्त्वं गृहीत्वा त्रसस्थावरैर्भूतैःजन्तुभिः कथं साम्प्रतं - सुखमवाप्यत इत्येतत् प्रत्युपेक्ष्य जानीहि - अवबुद्धयस्व, एतदुक्तं भवति- सर्वेऽप्यसुमन्तः सुखैषिणो दुःखद्विषो, न च तेषां सुखैषिणां दुःखोत्पादकत्वेन सुखावाप्तिर्भवतीति, यदिवा- 'विज्ज गहाय' त्ति विद्यां ज्ञानं गृहीत्वा विवेकमुपादाय त्रसस्थावरैर्भूतैर्जन्तुभिः करणभूतैः 'सातं' सुखं 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य 'जानीहि ' अवगच्छेति, यत उक्तम्
“पढमं नाणं तयो दया, एवं चिट्ठइ सव्व संजए । अन्नाणी किं काही, किंवा णाही छेयपावगं ||१||”
इत्यादि ॥१९॥
टीकार्थ - मोक्ष की कामनावाले होकर जो लोग जलावगाहन तथा अग्निहोत्री के द्वारा सिद्धि की प्राप्ति बतलाते हैं, वे उस अपने युक्ति रहित मन्तव्य पर ध्यान नहीं देते हैं। क्योंकि जलावगाहन और अग्निहोत्र करने से जीवों का घात होता है, अतः इस जीवोपघातक क्रिया से मोक्ष मिलना सम्भव नहीं है । वस्तुतः वे वस्तुतत्त्व को नहीं जानते हैं, इसलिए वे धर्म समझकर प्राणियों का घात करते हुए पाप ही करते हैं । इस पाप कर्म के सेवन करने से वे घात को ही प्राप्त होंगे। जिसमें प्राणिवर्ग नाना प्रकार से मारे जाते हैं, उसे घात कहते हैं, वह घात संसार है, वे उसी को प्राप्त करेंगे (मोक्ष को नहीं) क्योंकि जलकाय और अग्निकाय के आरम्भ से त्रस और स्थावर प्राणियों का अवश्य नाश होता है और उनके नाश से संसार ही प्राप्त होगा, सिद्धि नहीं मिलेगी, यह शास्त्रकार का आशय है । प्राणियों के घात से संसार ही मिलता है, मुक्ति नहीं मिलती है, इसलिए सत् और असत् के विवेकी विद्वान पुरुष को यही विचारना चाहिए कि- त्रस और स्थावर प्राणियों के घात से जीव को सुख कैसे मिल सकता है? भाव यह है कि सभी प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से द्वेष करते हैं, उन सुख की कामनावाले प्राणियों को कष्ट देने से कदापि सुख नहीं मिल सकता है अथवा ज्ञान प्राप्त करके पुरुष को यह जानना चाहिए कि त्रस और स्थावर प्राणियों के द्वारा ही सुख मिलता है (अर्थात् इनको जानकर इनकी रक्षा करने से ही सुख मिलता है) अत एव शास्त्र में कहा है कि
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पहले ज्ञान प्राप्त किया जाता है, तत्पश्चात् दया की जाती है। अज्ञानी पुरुष क्या कर सकता है ? और वह पुण्य तथा पाप के रहस्य को क्या जान सकता है ? ॥१९॥
1. प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतेषु अज्ञानी किं करिष्यति किं वा ज्ञास्यति छेकपापकं ।।
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