SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते ससममध्ययने गाथा १८ कुशीलपरिभाषाधिकारः टीकार्थ - जिससे पाप की उत्पत्ति होती है ऐसे जीवहिंसा आदि कर्म करनेवाले प्राणि को जो पापकर्म का उपचय होता है उसको यदि जल हर लेवे अर्थात् ऐसा यदि होता हो तो (हि शब्द यस्मात् अर्थ में है) प्राणियों के घात से पाप होता है और जल में अवगाहन करने से वह छूट जाता है यह बात सिद्ध होती है। ऐसी दशा में जलचर प्राणियों का घात करनेवाले अत्यन्त पापी मछुवे आदि भी मोक्ष को प्राप्त करलें परन्तु यह देखा नहीं जाता है तथा इष्ट भी नहीं है अतः जो जल में अवगाहन करने से सिद्धि बतलाते हैं, वे मिथ्यावादी हैं ॥१७॥ हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं अगणिं फुसंता । एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तम्हा, अगणिं फुसंताण कुकम्मिणंपि ॥१८॥ छाया - हुतेन ये सिद्धिमुदाहरन्ति, सायश प्रातरा स्पृशन्तः । एवं स्यात् सिद्धिर्भवेत्तस्मादयि स्पृशतां कुकर्मिणामपि ।। अन्वयार्थ - (सायं च पाय अगणिं फुसंता) सायं काल और प्रातः काल अनि का स्पर्श करते हुए (जे) जो लोग (हुतेण सिद्धिमुदाहरंति) होम करने से मुक्ति की प्राप्ति बतलाते हैं (वे भी झूठे है) एवं (सिया सिद्धि) यदि अनि के स्पर्श से सिद्धि मिले तो (अगणिं फुसंताण कुकम्मिणपि हवेज्ज) अनि का स्पर्श करनेवाले कुकर्मियों को भी मोक्ष मिल जाय । भावार्थ - प्रातः काल और सायं काल अग्नि का स्पर्श करते हुए जो लोग अग्नि में होम करने से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं, वे भी मिथ्यावादी हैं। यदि इस तरह मोक्ष मिले तो अग्निस्पर्श करनेवाले कुकर्मियों को भी मोक्ष मिल जाना चाहिए । टीका - 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम' इत्यस्माद्वाक्यात् 'ये' केचन मूढा 'हुतेन' अग्नौ हव्यप्रक्षेपेण 'सिद्धिं' सुगतिगमनादिकां स्वर्गावाप्तिलक्षणाम् 'उदाहरन्ति' प्रतिपादयन्ति, कथम्भूताः?- 'सायम्' अपराह्ने विकाले वा 'प्रातश्च' प्रत्युषसि अग्निं 'स्पृशन्तः' यथेष्टैर्हव्यैरग्निं तर्पयन्तस्तत एव यथेष्टगतिमभिलषन्ति, आहुश्चैवं ते यथा- अग्निकार्यात्स्यादेव सिद्धिरिति, तत्र च यद्येवमग्निस्पर्शेन सिद्धिर्भवेत् ततस्तस्मादग्निं संस्पृशतां 'कुकर्मिणाम्' अङ्गारदाहककुम्भकारायस्कारादीनां सिद्धिः स्यात्, यदपि च मन्त्रपूतादिकं तैरुदाह्रियते तदपि च निरन्तरा सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, यतः कुकर्मिणामप्यग्निकार्ये भस्मापादनमग्निहोत्रिकादीनामपि भस्मसात्करणमिति नातिरिच्यते कुकर्मिभ्योऽग्निहोत्रादिकं कर्मेति, यदप्युच्यते- "अग्निमुखा वै देवाः एतदपि युक्तिविकलत्वात् वाङ्मात्रमेव, विष्ठादिभक्षणेन चाग्नेस्तेषां बहुतरदोषोत्पत्तेरिति ॥१८॥ टीकार्थ - "स्वंग की कामनावाले पुरुष को अग्निहोत्र करना चाहिए" इस वाक्य के कारण जो मूर्ख जीव, अग्नि में होम करने से स्वर्ग की प्राप्ति रूप सिद्धि यानी सगतिगमन बतलाते हैं। (वे मिथ्यावादी हैं। वे कैसे हैं? वे दोपहर के बाद अथवा सायंकाल में तथा प्रातः काल में इच्छानुसार हविष् के द्वारा अग्नि की तृप्ति करते हुए उस कर्म से इच्छानुसार गति चाहते हैं । वे कहते हैं कि अग्निकार्य करने से अवश्य सिद्धि मिलती है । परन्तु यदि अग्नि के स्पर्श से मुक्ति मिले तो आग जलाकर कोयला बनानेवाले, तथा कुम्हार और लुहार आदि कुकर्मियों को भी सिद्धि मिलनी चाहिए । अग्निस्पर्श से सिद्धि बतानेवाले जो लोग मन्त्र से पवित्र अग्नि के स्पर्श से सिद्धि का वर्णन करते हैं, यह उनके मूर्ख मित्र ही मान सकते हैं क्योंकि कुकुर्मी जीवों के द्वारा डाली हुई चीज को जैसे अग्नि भस्म करती है ,उसी तरह अग्निहोत्री के द्वारा डाली हुई चीज को भी भस्म ही करती है, इसलिए कुकर्मी की अपेक्षा अगिहोत्री के अग्निकार्य में कोई विशेषता नहीं है । तथा वे जो यह कहते हैं कि देवताओं का मुख अग्नि है, यह भी युक्ति रहित होने के कारण कथनमात्र है। अग्नि तो विष्ठा को भी जलाती है। अतः ऐसा मानने से बहत दोषों की उत्पत्ति होगी ॥१८॥ - उक्तानि पृथक् कुशीलदर्शनानि, अयमपरस्तेषां सामान्योपालम्भ इत्याह- कुशील दर्शनों का वर्णन पृथक् किया । दूसरों को सामान्य उपालंभ के लिए कहते हैं ३७९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy