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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते ससममध्ययने गाथा १६-१७
कुशीलपरिभाषाधिकारः उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा, एवं सुहं इच्छामित्तमेव । अंधं व णेयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा
॥१६॥ छाया - उदकं यदि कर्ममलं हरेदेवं शुभमिच्छामात्रमेव ।
अन्धश नेतारमनुसृत्य प्राणिन श्चैवं विनिन्ति मब्दाः ।। अन्वयार्थ - (उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा ) जल यदि कर्म मल को हरे तो (एव) इसी तरह (सुह) वह पुण्य को भी हर लेगा (इच्छामित्तमेव) इसलिए जल कर्म मल को हरता है, यह कहना इच्छा मात्र है। (मंदा) मूर्ख जीव, (अंधं णेयारमणुस्सरित्ता) अन्धे नेता के पीछे चलकर (पाणाणि चेवं विणिहति) जल स्नान आदि के द्वारा प्राणियों की हिंसा करते हैं।
भावार्थ - जल यदि पाप को हरे तो वह पुण्य को भी क्यों नहीं हर लेगा ? अतः जलस्पर्श से मोक्ष मानना मनोरथ मात्र है । वस्तुतः मूर्ख जीव, अज्ञानी नेता के पीछे चलते हुए जल स्नान आदि के द्वारा प्राणियों का घात करते हैं ।
टीका - यधुदकं कर्ममलमपहरेदेवं शुभमपि पुण्यमपहरेत्, अथ पुण्यं नापहरेदेवं कर्ममलमपि नापहरेत्, अत इच्छामात्रमेवैतद्यदुच्यते-जलं कर्मापहारीति, एवमपि व्यवस्थिते ये स्नानादिकाः क्रियाः स्मार्तमार्गमनुसरन्तः कुर्वन्ति ते यथा जात्यन्धा अपरं जात्यन्धमेव नेतारमनुसृत्य गच्छन्तः कुपथश्रितयो भवन्ति नाभिप्रेतं स्थानमवाप्नुवन्ति एवं स्मार्तमार्गानुसारिणो जलशौचपरायणा 'मन्दा' अज्ञाः कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकलाः प्राणिन एव तन्मयान् तदाश्रितांश्च पूतरकादीन् 'विनिघ्नन्ति' व्यापादयन्ति, अवश्यं जलक्रियया प्राणव्यपरोपणस्य सम्भवादिति ॥१६॥ अपिच
टीकार्थ - दूसरी बात यह है कि-जल यदि कर्म मल को हरे, तो वह पुण्य को भी हर लेगा। यदि वह पुण्य को नहीं हरे तो वह पाप को भी नहीं हर सकता है। अतः जल, कर्म को हरण करता है, यह कथन इच्छा मात्र है । वस्तुत: जलस्नान, कर्म को दूर नहीं करता है, यह निश्चित होने पर भी स्मृति मार्ग के अनुयायी जो लोग स्नान आदि क्रियायें करते हैं (वे कुमार्ग का सेवन करते हैं) जैसे जन्मान्ध पुरुष दूसरे जन्मान्ध के पीछे चलता हुआ कुमार्ग में जाता है, वह अपने इष्ट स्थान को नहीं पहुँचता । इसी तरह जलशोच में रत रहनेवाले स्मृति मार्ग के अनुयायी मूर्ख हैं, वे कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहीत हैं, वे जल स्नान के द्वारा जल काय के जीवो
के आश्रित जीवों का घात करते हैं, जल स्नान आदि क्रिया से अवश्य प्राणियों का घात होता है ॥१६॥
पावाई कम्माई पकुव्वतो हि, सिओदगं तू जइ तं हरिज्जा । सिझिसु एगे दगसत्तघाती, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु
॥१७॥ छाया - पापानि कर्माणि प्रकुर्वतोहि, शीतोदकं तु यदि तद्धरेत ।
सिद्धयेयुरेके दकसत्त्वघातिनो, मृषा वदन्तो जलसिद्धिमाहुः ॥ अन्वयार्थ - (पावाई कम्माई पकुव्वतो हि) यदि पाप कर्म करनेवाले पुरुष के (तं) उस पाप को (सिओदगं तू हरिज्जा) शीतल जल का स्नान दूर कर दे तो (एगे दगसत्तघाती सिज्झिसु) जल के जीवों को घात करनेवाले मछुवे आदि भी मुक्ति का लाभ करें (मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु) इसलिए जो जलस्नान से मुक्ति की प्राप्ति बतलाते हैं, वे झूठे हैं।
भावार्थ - पापी पुरुष के पाप को यदि जल हरण करे तो जलजन्तुओं को मारनेवाले मछुवे भी मुक्ति को प्राप्त करें । अतः जलस्नान से मुक्ति बतानेवाले झुठे हैं।
टीका - 'पापानि' पापोपादानभूतानि 'कर्माणि' प्राण्युपमर्दकारीणि कुर्वतोऽसुमतो यत्कर्मोपचीयते तत्कर्म यद्युदकमपहरेत् यद्येवं स्यात् तर्हि हि: यस्मादर्थे यस्मात्प्राण्युपमर्दैन कर्मोपादीयते जलावगाहनाच्चापगच्छति तस्मादुदकसत्त्वघातिनः पापभूयिष्ठा अप्येवं सिद्धयेयुः, न चैतदुष्टमिष्टं वा, तस्माद्ये जलावगाहनात्सिद्धिमाहुः ते मृषा वदन्ति ॥१७॥ किञ्चान्यत्
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