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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा १५ कुशीलपरिभाषाधिकारः "नोदकक्लिन्नगात्रो हि, स्नात इत्याभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ||१|| " ॥१४॥ किञ्च टीकार्थ जो मूर्ख शीतल जल के स्नान आदि से मुक्ति बतलाते हैं और कहते हैं कि अपराह्न में (दोपहर के बाद) अथवा विकाल में तथा प्रातः काल में एवं आदि और अन्त के ग्रहण से मध्याह्नकाल में, इस प्रकार तीनों संध्याओं में शीतल जल के द्वारा स्नान आदि क्रिया करनेवाले प्राणी मोक्ष गति को प्राप्त करते हैं, सो वे ठीक नहीं कहते है, यदि जल के स्पर्शमात्र से मुक्ति मिले तो जल के आश्रय से रहनेवाले मछुएँ (मछली मारनेवाले) जो बड़े क्रूर कर्म करते हैं तथा निर्दय हैं, वे भी मोक्ष को प्राप्त कर लें। तथा वे जो यह कहते हैं कि- बाहर के मल को दूर करने का सामर्थ्य जल में देखा जाता है, सो भी विचार करने पर ठीक नहीं प्रतीत होता है क्योंकि जल जैसे बुरे मल को धो देता है, इसी तरह वह प्रिय अङ्गराग, कुङ्कुम आदि को भी धो डालता है, अतः जल के द्वारा पाप की तरह पुण्य भी धुल जाने से वह इष्ट का विघातक अपना विरोधी होगा हितकारक नहीं ? वस्तुतः ब्रह्मचारी साधु को जल स्नान दोष उत्पन्न करता है, अत एव कहा है कि - (स्नानम्) अर्थात् स्नान मद और दर्प उत्पन्न करता है तथा वह प्रधान काम का मुख्य कारण है, इसलिए जो पुरुष इन्द्रियों के दमन में रत हैं, वे काम का त्याग करके स्नान नहीं करते हैं । तथा यह भी कहा है किजलसे भीगा हुआ शरीरवाला पुरुष स्नान किया हुआ नहीं कहा जाता ? किन्तु जो पुरुष व्रतों से स्नान किया हुआ है, वह स्नान किया हुआ कहा जाता है, क्योंकि वह पुरुष बाहर और भीतर दोनों ही प्रकार से शुद्ध है ॥१४॥ मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य, मग्गू य उट्ठा (ट्टा) दगरक्खसा य । अट्ठाणमेयं कुसला वयंति, उदगेण जे सिद्धिमुदाहरति छाया - मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाश्च, मद्रवश्चोष्ट्रा उदकराक्षसाश्च । अस्थानमेतत्कुशला वदन्त्युदकेन ये सिद्धिमुदाहरन्ति ॥ - अन्वयार्थ (मच्छा य, कुम्मा य, सिरीसिवा य) मत्स्य, कच्छप, सरीसृप, मद्गव ( जलमृग ) ( उट्ठा दगरक्खसा य) तथा ऊँट नामक जलचर और जल राक्षस (ये सबसे पहले मुक्ति प्राप्त करें, यदि जलस्पर्श से मुक्ति होती हो तो) (दगेण जे सिद्धिमुदाहरंति) अतः जो जलस्पर्श से मुक्ति की प्राप्ति बताते हैं (अट्ठाणमेयं कुसला वयंति) उनका कथन अयुक्त है, यह मोक्ष का तत्त्व जानने वाले . पुरुष कहते हैं। भावार्थ यदि जलस्पर्श से मुक्ति की प्राप्ति हो, तो मच्छली, कच्छप, सरीसृप तथा जल में रहनेवाले दूसरे जलचर सबसे पहले मोक्ष प्राप्त करें, परन्तु यह नहीं होता। इसलिए जो जलसपर्श से मोक्ष बताते हैं, उनका कथन अयुक्त है, यह मोक्ष का तत्त्व जाननेवाले पुरुष कहते हैं । - ।।१५।। - टीका – यदि जलसम्पर्कात्सिद्धिः स्यात् ततो ये सततमुदकावगाहिनो मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाश्च तथा मद्गवः तथोष्ट्रा-जलचरविशेषाः तथोदकराक्षसा - जलमानुषाकृतयो जलचरविशेषा एते प्रथमं सिद्धयेयुः, न चैतद् दृष्टमिष्टं वा, ततश्च ये उदकेन सिद्धिमुदाहरन्त्येतद् 'अस्थानम्' अयुक्तम्- असाम्प्रतं 'कुशला' निपुणा मोक्षमार्गाभिज्ञा वदन्ति ॥१५॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ यदि जल के संपर्क से मुक्ति की प्राप्ति हो, तो जो निरन्तर जल में अवगाहन किये रहते हैं, वे मछली, कछुवे, सरीसृप, जलमृग तथा ऊँट नामवाले जलचर एवं जल मनुष्य के समान आकार वाले जल राक्षस नामक जलचर विशेष सबसे पहले मोक्ष प्राप्त करें, परन्तु यह नहीं देखा जाता तथा यह इष्ट भी नहीं है, इसलिए जो जलस्पर्श से मोक्ष की प्राप्ति बताते हैं, उनका कथन अयुक्त है, यह मोक्ष मार्ग का रहस्य जाननेवाले निपुण पुरुष कहते ॥१५॥ ३७७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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