SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा १४ 'अन्यत्र' मोक्षादन्यत्र संसारे वासम् - अवस्थानं तथाविधानुष्ठानसद्भावात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपमोक्षमार्गस्याननुष्ठानाच्च 'परिकल्पयन्ति' समन्तान्निष्पादयन्तीति ॥ १३॥ टीकार्थ जो पुरुष शील रहित हैं, उनको प्रातः काल के स्नान आदि से मोक्ष नहीं मिलता है । आदि शब्द से हाथ पैर, धोना आदि का ग्रहण है ! जल के भोग करने से जल के जीवों का घात होता है, परन्तु जीवघात से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है तथा जल बाह्य मल को दूर करने में एकान्त रूप से समर्थ भी नहीं है, । अन्दर की शुद्धि, भाव की शुद्धि मछली मार कर जीविका करनेवाले नमक के त्याग से भी मुक्ति नहीं एक मात्र नमक ही रस का पुष्टि पोषक हैं । तथा उक्त वादी से यदि कथञ्चित् हो, तो भी वह अन्दर के मल को दूर करने में समर्थ नहीं है से ही होती है । यदि भाव रहित जीव की भी जल से अन्दर की शुद्धि हो, तो मल्लाह आदि को भी जलस्नान से मुक्ति होनी चाहिए । तथा पाँच प्रकार के मिलती है। नमक नहीं खाने से मोक्ष मिलता है, यह कथन युक्ति रहित हैं । जनक है, यह भी एकान्त नहीं है, क्योंकि दूध और सक्कर आदि भी रस के यह पूछना चाहिए कि द्रव्य से नमक का त्याग करने से मोक्ष मिलता है अथवा भाव से ?। यदि द्रव्य से कहो, तो जिस देश में नमक नहीं होता है, उस देश के सभी लोगों को मोक्ष मिल जाना चाहिए । परन्तु यह देखा नहीं जाता है और ऐसा इष्ट भी नहीं है । यदि भाव से कहो, तब तो भाव ही प्रधान है फिर नमक छोड़ने की क्या आवश्यकता है ? । तथा वे मूर्ख मद्य, मांस, और लशुन आदि खाकर संसार में निवास करते हैं क्योंकि उनका अनुष्ठान संसार में निवास के योग्य ही होता है तथा वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्ष मार्ग का अनुष्ठान भी नहीं करते हैं । अतः वे मोक्ष से दूसरी जगह संसार में अपना निवास बनाते हैं ||१३|| कुशीलपरिभाषाधिकारः साम्प्रतं विशेषेण परिजिहीर्षुराह - अब शास्त्रकार विशेषरूप से जल स्पर्श से मुक्तिवाद का खण्डन करने के लिए कहते हैंउदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं उदगं फुसंता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि छाया - उदकेन ये सिद्धिमुदाहरन्ति, सायञ्च प्रातरुदकं स्पृशन्तः । उदकस्य स्पर्शेन स्याच्च सिद्धिः सिध्येयुः प्राणाः बहव उदके ॥ ३७६ अन्वयार्थ – (सायं पायं चं उदगं फुसंता) सायंकाल और प्रातःकाल में जल का स्पर्श करते हुए (जे उदगेण सिद्धिमुदाहरंति) जो जल - स्नान से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं (वे मिथ्यावादी हैं) (उदगस्स फासेण सिया) जल के स्पर्श से यदि मुक्ति मिले, तो (दगंसि बहवे पाणा सिज्झिसु) जल में रहनेवाले बहुत से जलचर मोक्ष को प्राप्त करें । 118811 भावार्थ - सायंकाल और प्रातःकाल जल स्पर्श करते हुए जो लोग जलस्पर्श से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं, वे झूठे हैं । यदि जलस्पर्श से मोक्ष की प्राप्ति हो, तो जल में रहनेवाले जानवरों को भी मोक्ष मिलना चाहिए । टीका तथा ये केचन मूढा 'उदकेन' शीतवारिणा 'सिद्धि' परलोकम् 'उदाहरन्ति' प्रतिपादयन्ति - ' सायम्' अपराह्णे विकाले वा 'प्रातश्च' प्रत्युषसि च आद्यन्तग्रहणात् मध्याह्ने च तदेवं सन्ध्यात्रयेऽप्युदकं स्पृशन्तः स्नानादिकां क्रियां जलेन कुर्वन्तः प्राणिनो विशिष्टां गतिमाप्नुवन्तीति केचनोदाहरन्ति एतच्चासम्यग् यतो यद्युदकस्पर्शमात्रेण सिद्धिः स्यात् तत उदकसमाश्रिता मत्स्यबन्धादयः क्रूरकर्माणो निरनुक्रोशा बहवः प्राणिनः सिद्धयेयुरिति यदपि तैरुच्यतेबाह्यमलापनयनसामर्थ्यमुदकस्य दृष्टमिति तदपि विचार्यमाणं न घटते, यतो यथोदकमनिष्टमलमपनयत्येवमभिमतमप्यङ्गरागं कुङ्कुमादिकमपनयति, ततश्च पुण्यस्यापनयनादिष्टविघातकृद्विरुद्धः स्यात् किञ्च यतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोषायैव, तथा चोक्तम् " स्नानं मददर्पकर, कामानं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, न ते स्नान्ति दमे रताः ||१|| अपिच -
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy