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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा १३
कुशीलपरिभाषाधिकारः "सैन्धव, सौवर्चल, बिड, रौम, सामुद्र" सब रसों की नमक से ही अभिव्यक्ति (प्रकाश) होती है। कहा है कि"लवण विहूणा" अर्थात् बिना नमक का रस और बिना नेत्र के इन्द्रियगण तथा दयारहित धर्म और सन्तोष रहित सुख नहीं हैं ।
तथा रसों में नमक, स्नेहों मे तेल और पवित्र वस्तुओ में घृत सर्वश्रेष्ट हैं । अतः नमक के छोड़ देने से रसमात्र का त्याग हो जाता है और रसमात्र के त्याग से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसा कोई मूढ़ पुरुष कहते हैं। यहां “आहारओ पंचक वज्जणेण" यह पाठान्तर भी मिलता है । इसका अर्थ यह है कि पाँच वस्तुओं का आहार छोड़ देने से मोक्ष होता है, ऐसा कोई मूर्ख कहते हैं। यहां (आहारओ) इस पद में ल्यब् लोपे कर्मणि पञ्चमी हुइ है । वे पाँच वस्तु ये हैं - लसुन, प्याज, उँटनी का दूध, गोमांस, और मद्य । इन पाँच वस्तुओं का त्याग करने से मोक्ष मिलता है । ऐसा कोई मूर्ख बतलाते है । एवं वारिभद्रक आदि भगवान विशेष सचित्त जलकाय के भोग से मोक्ष बतलाते हैं । इस विषय में वे यह युक्ति बतलाते हैं- वे कहते हैं कि जल जैसे बाहर के मल को दूर करता है, इसी तरह अन्दर के मल को भी धो देता है । वस्त्र आदि की शुद्धि जल से होती है, इसलिए बाहर के मल के धोने की शक्ति जल में देखी जाने से वे लोग अन्दर की शुद्धि भी जल से ही मानते हैं। तथा कोई तापस और ब्राह्मण आदि होम करने से मोक्ष बतलाते हैं । वे कहते हैं कि जो पुरुष स्वर्गादि फल की इच्छा न करके समिधा और घृत आदि हव्य विशेष के द्वारा अग्नि की तृप्ति करते हैं, वे मोक्ष के लिए अग्निहोत्र करते हैं। उन्हें स्वर्ग प्राप्ति आदि अभ्युदय प्राप्त होता है। इस विषय में वे युक्ति यह देते हैं- अग्नि, सोने के मल को जलाती है, इसलिए अग्नि में मल को जलाने की शक्ति देखने से, वह आत्मा के आन्तरिक पाप को भी जलाती है यह निश्चित है ॥ १२ ॥
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तेषामसम्बद्धप्रलापिनामुत्तरदानायाह
पूर्वोक्ति प्रकार से असंबद्ध प्रलाप करने वाले अन्यतीर्थियों को उत्तर देने के लिए शास्त्रकार कहते हैपाओसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएणं
ते मज्जमंसं लसुणं च भोच्चा, अन्नत्थ वासं परिकप्पयंति
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छाया प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्षः, क्षारस्य लवणस्यानशनेन । ते मद्यमासं लशुन भुक्त्वाऽन्यत्र वासं परिकल्पयन्ति ॥
अन्वयार्थ
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( पाओसणाणादिसु) प्रभात काल के ख़ान आदि से (मोक्खो) मोक्ष ( णत्थि ) नहीं होता हैं (खारस्स लोणस्स अणासएणं) तथा नमक न खाने से भी मोक्ष नहीं होता है (ते) वे अन्यतीर्थी (मज्जमांस लसुणं च भोच्चा) मद्य, मांस और लशुन खाकर (अन्नत्थ) मोक्ष से अन्य स्थान अर्थात् संसार में (वासं परिकप्पयंति) निवास करते हैं ।
।।१३।।
भावार्थ
प्रभातकाल के स्नान आदि से मोक्ष नहीं होता है तथा नमक न खाने से भी मोक्ष नहीं होता है वे अन्यतीर्थी मद्य, मांस और लशुन खाकर संसार में भ्रमण करते हैं ।
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टीका प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्ष' इति प्रत्यूषजलावगाहनेन निःशीलानां मोक्षो न भवति, आदिग्रहणात् हस्तपादादिप्रक्षालनं गृह्यते, तथाहि - उदकपरिभोगेन तदाश्रितजीवानामुपमर्दः समुपजायते, न च जीवोपमर्दान्मोक्षावाप्तिरिति, न चैकान्तेनोदकं बाह्यमलस्याप्यपनयने समर्थम्, अथापि स्यात्तथाप्यान्तरं मलं न शोधयति, भावशुद्धया तच्छुद्धेः, अथ भावरहितस्यापि तच्छुद्धिः स्यात् ततो मत्स्यबन्धादीनामपि जलाभिषेकेण मुक्त्यवाप्तिः स्यात्, तथा''क्षारस्य' पञ्चप्रकारस्यापि लवर्णस्य 'अनशनेन' अपरिभोगेन मोक्षो नास्ति, तथाहि - लवणपरिभोगरहितानां मोक्षो भवतीत्ययुक्तिकमेतत्, न चायमेकान्तो लवणमेव रसपृष्टिजनकमिति, क्षीरशर्करादिभिर्व्यभिचारात्, अपिचासौ प्रष्टव्यःकिं द्रव्यतो लवणवर्जनेन मोक्षावाप्तिः उत भावतः ?, यदि द्रव्यतस्ततो लवणरहितदेशे सर्वेषां मोक्षः स्यात्, न चैवं दृष्टमिष्टं वा, अथ भावतस्ततो भाव एव प्रधानं किं लवणवर्जनेनेति, तथा 'ते' मूढा मद्यमांसं लशुनादिकं च भुक्त्वा 1. पारिभाषिकलवणमात्रप्रतिपत्तिनिरासाय क्षारेति, अत एवपञ्चप्रकारस्यापीति वृत्तिः । 2. चणकादेपि क्षारादिमत्त्वाल्लवणेति । 3. अन्येषामपि भावाशुद्धयापादकानां वर्जनीयत्वात्, मद्यमांसादिभोजित्वं वक्ष्यत्वग्रे ।
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