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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा १२ कुशीलपरिभाषाधिकारः इस लोक में अनार्य कर्म करनेवाला पुरुष अपने कर्म से दुःख को प्राप्त करता है । वह सुख के लिए प्राणियों का घात करके दुःख पाता है और मोक्ष के लिए जीव घात करके संसार भ्रमण करता है ॥११॥ - उक्तः कुशीलविपाकोऽधुना तद्दर्शनान्यभिधीयन्ते- .. - कुशील पुरुषों को जो फल मिलता है, वह कहा गया, अब उनके दर्शन बताये जाते हैंइहेग मूढा पवयंति मोक्खं, आहारसंपज्जणवज्जणेणं । एगे य सीओदगसेवणेणं, हुएण एगे पवयंति मोक्खं ॥१२॥ छाया - इठेके मूढाः प्रवदन्ति मोक्ष-माहारसम्पज्जवर्ननेन । ___ एके च शीतोदकसेवनेन, हुतेनेके प्रवदन्ति मोक्षम् ॥ अन्वयार्थ - (इह) इस जगत् में अथवा इस मोक्ष के विषय में (एगे) कोई (मूढा) मूर्ख (आहार संपज्जणवज्जणेणं मोक्खं पवयंति) नमक खाना छोड़ देने से मोक्ष होना बतलाते हैं । (एगे य) और कोई (सीओदगसेवणेणं) शीतल जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं (एगे) एवं कोई (हुएण मोक्खं पवयंति) होम करने से मोक्ष बतलाते हैं। भावार्थ - इस लोक में कोई मूर्ख नमक खाना छोड़ देने से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं और कोई शीतल जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं एवं कोई होम करने से मोक्ष की प्राप्ति बताते हैं । टीका - 'इहे ति मनुष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे वा, एके केचन 'मूढा' अज्ञानाऽऽच्छादितमतयः परैश्च मोहिताः प्रकर्षेण वदन्ति प्रवदन्ति-प्रतिपादयन्ति, किं तत् ?- 'मोक्षं मोक्षावाप्ति, केनेति दर्शयति-आहियत इत्याहार-ओदनादिस्तस्य सम्पद्रसपुष्टिस्तां जनयतीत्याहारसम्पज्जननं- लवणं, तेनाऽऽहारस्य रसपुष्टिः क्रियते, तस्य वर्जनं तेनाऽऽहारसम्पज्जननवर्जनेन-लवणवर्जनेन मोक्षं वदन्ति, पाठान्तरं वा 'आहारसपंचयवज्जणेण' आहारेण सह लवणपञ्चकमाहारसपञ्चकं लवणपञ्चकं चेदं, तद्यथा-सैन्धवं सौवर्चलं बिडं रौमं सामुद्रं चेति, लवणेन हि सर्वरसानामभिव्यक्तिर्भवति, तथा चोक्तम्"लवणविहूणा य रसा चक्खविहूणा य इंदियग्गामा । धम्मो दयाय रहिओ सोक्खं संतोसरहियं नो ||१||" ___ तथा 'लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्याना'मिति. तदेवम्भूतलवणपरिवर्जनेन रसपरित्याग एव कृतो भवति, तत्त्यागाच्च मोक्षावाप्तिरित्येवं केचन मूढाः प्रतिपादयन्ति, पाठान्तरं वा 'आहारओ पंचकवज्जणेणं' आहारत इति ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी आहारमाश्रित्य पञ्चकं वर्जयन्ति, तद्यथा- लसुणं पलाण्डुः करभीक्षीरं गोमांसं मद्य चेत्येतत्पञ्चकवर्जनेन मोक्षं प्रवदन्ति । तथैके 'वारिभद्रकादयो' भागवतविशेषाः शीतोदकसेवनेन' सचित्ताप्कायपरिभोगेन मोक्षं प्रवदन्ति, उपपत्तिं च ते अभिदधति-यथोदकं बाह्यमलमपनयति एवमान्तरमपि, वस्त्रादेश्च यथोदकाच्छुद्धिरुपजायते एवं बाह्यशुद्धिसामर्थ्यदर्शनादान्तरापि शुद्धिरुदकादेवेति मन्यन्ते, तथैके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्षं प्रतिपादयन्ति, ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य समिधाघृतादिभिर्हव्यविशेषैर्हताशनं तर्पयन्ति ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुह्वति शेषास्त्वभ्युदयायेति, युक्ति चात्र ते आहुः यथा ह्यग्निः सुवर्णादीनां मलं दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति ॥१२॥ टीकार्थ - इस मनुष्य लोक में अथवा मोक्ष के प्रकरण में, अज्ञान से ढकी हुई बुद्धिवाले तथा दूसरे के द्वारा मोह में डाले हुए कोई मुर्ख यह कहते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति नमक खाना छोड़ देने से होती है । जो खाया जाता है, उसे आहार कहते हैं । भात आदि को आहार कहते हैं । उसके रस की पुष्टि जिसके द्वारा होती है, उसे "आहारसंपज्जन" कहते हैं । वह नमक है, क्योंकि उसी से आहार के रस की पुष्टि होती है । उस नमक को छोड़ देने से कोई मोक्ष बताते हैं। यहां "आहारसपंचयवज्जणेण" यह पाठान्तर है । इसका अर्थ यह है कि आहार के साथ पांच प्रकार के नमक को छोड़ देने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। वे पांच प्रकार के नमक ये हैं- (सैन्धवम्) 1. लवणविहीनाच रसाचक्षुर्विहीनाघेन्द्रियग्रामाः । धर्मो दयया रहितः सौख्यं सन्तोषरहितं न ॥१।। 2. कादेरेवेति प्र० । ३७४
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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