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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा २२ कुशीलपरिभाषाधिकारः है (जे) तथा जो (धोवती) अपने वस्त्र या पैर आदि को धोता है (भूसयती वत्थं) तथा शोभा के लिए बड़े वस्त्र को छोटा या छोटे को बड़ा करता है ( अहाहु) तीर्थंकर तथा गणधरों ने कहा है कि ( से णागणियस्स दूरे) वह संयम से दूर है। भावार्थ - जो साधु नामधारी दोष रहित आहार को छोडकर दूसरा स्वादिष्ट भोजन खाता है तथा अचित्त जल से अचित्त स्थान में अङ्गों को संकोच कर के भी स्नान करता है तथा जो शोभा के लिए अपने पैर तथा वस्त्र आदि को धोता है एवं जो शृङ्गार के लिए अपने पैर तथा वस्त्र आदि को धोता है एवं जो शृङ्गार के लिए छोटे वस्त्र को बड़ा और बड़े को छोटा करता है, वह संयम से दूर है, ऐसा तीर्थकर और गणधरों ने कहा है । टीका – 'ये' केचन शीतलविहारिणो धर्मेण - मुधिकया लब्धं धर्मलब्धं उद्देशकक्रीतकृतादिदोषरहितमित्यर्थः, तदेवम्भूतमप्याहारजातं 'विनिधाय' व्यवस्थाप्य सन्निधिं कृत्वा भुञ्जन्ते तथा ये 'विकटेन' प्रासुकोदकेनापि सङ्कोच्याङ्गानि प्रासुक एव प्रदेशे देशसर्वस्नानं कुर्वन्ति, यो वस्त्रं 'धावति' प्रक्षालयति तथा 'लूषयति' शोभार्थं दीर्घमुत्पाटयित्वा ह्रस्वं करोति ह्रस्वं वा सन्धाय दीर्घं करोति एवं लूषयति, तदेवं स्वार्थं परार्थं वा यो वस्त्रं लूषयति, अथासौ 'णागणियस्स' त्ति निर्ग्रन्थभावस्य संयमानुष्ठानस्य दूरे वर्तते, न तस्य संयमो भवतीत्येवं तीर्थंकरगणधरादय आहुरिति ॥२१॥ टीकार्थ जो शीतल विहारी पुरुष धर्म से प्राप्त अर्थात् उद्देशिक, तथा क्रीत आदि दोंषों से रहित आहार को छोड़कर दूसरा सदोष आहार खाते हैं तथा प्रासुक जल से भी अपने अङ्गों को संकोच करके प्रासुक भूमि में भी देश से या सम्पूर्ण से स्नान करते हैं, तथा जो अपने वस्त्रों को धोते हैं एवं जो शोभा के लिए बड़े वस्त्र को काटकर छोटा और छोटे का जोड़कर बड़ा बनाते हैं। इस प्रकार जो अपने लिये या दूसरे के लिए वस्त्र को छोटा या बड़ा करते वे साधु पने से अर्थात् संयम के अनुष्ठान से दूर हैं, उनको संयम नहीं है, यह तीर्थंङ्कर तथा गणधर आदि ने कहा है ॥२१॥ - उक्ता: कुशीलाः, तत्प्रतिपक्षभूताः शीलवन्तः प्रतिपाद्यन्त इत्येतदाहकुशील कहे जा चूके, अब उनसे विपरीत सुशील कहे जाते हैंकम्मं परिन्नाय दगंसि धीरे, वियडेण जीविज्ज य आदिमोक्खं । से बीकंदाइ अभुंजमाणे, विरते सिणाणाइसु इत्थियासु छाया कर्म परिज्ञायोदके धीरो विकटेन जीवेच्चादिमोक्षम् । स बीजकन्दान् अभुआनो विरतः स्नानादिषु स्त्रीषु ॥ अन्वयार्थ (धीरे धीर पुरुष, (दगंसि) जल स्नान में (कम्मं परिन्नाय) कर्मबन्ध जानकर (आदि मोक्खं) संसार से मोक्ष पर्य्यन्त (वीडेण) प्रासुक जल के द्वारा (जीविज्ज) जीवन धारण करे (से) वह साधु (बीयकंदाई अभुंजमाणे) बीजकन्द आदि का भोजन न करता हुआ (सिणाणाइसु इत्थियासु) स्नान आदि तथा स्त्री आदि से (विरते) अलग रहें । ।।२२।। - भावार्थ - बुद्धिमान पुरुष, जल स्नान से कर्म बन्ध जानकर मुक्तिपर्य्यन्त प्रासुक जल से जीवन धारण करे, वह बीजका तथा कन्द आदि का भोजन न करे एवं स्नान तथा मैथुन सेवन से दूर रहे । ३८२ टीका - धिया राजते इति धीरो - बुद्धिमान् 'उदगंसि त्ति उदकसमारम्भे सति कर्मबन्धो भवति, एवं परिज्ञाय किं कुर्यादित्याह - 'विकटेन' प्रासुकोदकेन सौवीरादिना 'जीव्यात्' प्राणसंधारणं कुर्यात्, चशब्दात् अन्येनाप्याहारेण प्रासुकेनैव प्राणवृत्तिं कुर्यात्, आदि:- संसारस्तस्मान्मोक्ष आदिमोक्षः (तं) संसारविमुक्ति यावदिति, धर्मकारणानां वाऽऽदिभूतं शरीरं तद्विमुक्ति यावत् यावज्जीवमित्यर्थः, किं चासौ साधुर्बीजकन्दादीन् अभुञ्जानः, आदिग्रहणात् मूलपत्रफलानि गृह्यन्ते, एतान्यप्यपरिणतानि परिहरन् विरतो भवति, कुत इति दर्शयति - स्नानाभ्यङ्गोद्वर्तनादिषु क्रियासु निष्प्रतिकर्मशरीरतयाऽन्यासु च चिकित्सादिक्रियासु न वर्तते, तथा स्त्रीषु च विरतः, बस्तिनिरोधग्रहणात् अन्येऽप्याश्रवा गृह्यन्ते, यश्चैवम्भूतः सर्वेभ्योऽप्याश्रवद्वारेभ्यो विरतो नासौ कुशीलदोषैर्युज्यते तदयोगाच्च न संसारे बम्भ्रमीति, ततश्च
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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