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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा २३ कुशीलपरिभाषाधिकारः न दुःखितः स्तनति नापि नानाविधैरपायैर्विलुप्यत इति ॥२२॥ टीकार्थ - जो बुद्धि से शोभा पाता है, उसे धीर कहते हैं। धीर, बुद्धिमान को कहते हैं, वह पुरुष जल के आरम्भ से कर्मबन्ध होता है, यह जानकर क्या करे ? सो शास्त्रकार बताते हैं, वह पुरुष प्रासुक, सौवीरक आदि जल से अपना प्राण धारण करे तथा च शब्द से दूसरे प्रासुक ही आहार से अपने प्राण की रक्षा करे । संसार को आदि कहते हैं, उससे मोक्ष होना 'आदि मोक्ष' कहलाता है । वह जब तक न हो, साधु प्रासुक वस्तु के सेवन से ही अपने प्राण धारण करे । अथवा धर्म के कारणरूप इस शरीर का मोक्ष (पात) जब तक न हो अर्थात् जीवनभर साधु प्रासुक वस्तु के द्वारा ही अपना निर्वाह करे । वह साधु बीज और कन्द आदि का आहार भी न .. करे । यहां आदि शब्द से मूल, पत्र और फलों का ग्रहण है । जो मूल, पत्र और फल प्रासुक नहीं है, उनको भी विरत पुरुष त्याग देते हैं, विरत पुरुष ऐसा क्यों करते हैं ? सो शास्त्रकार दिखलाते हैं-विरत पुरुष स्नान, तैलादि के द्वारा अङ्गमर्दन तथा पिट्टी आदि का शरीर में लेप करना इत्यादि क्रियाओं से दूर रहकर, शरीर का परिशोधन नहीं करते हैं तथा दूसरी चिकित्सा आदि क्रियाये भी नहीं कराते हैं तथा वे स्त्री से भी विरत रहते हैं, यहां वस्ति के निरोध के ग्रहण से दूसरे आश्रव भी गृहीत होते हैं । जो पुरुष ऐसा है, वह समस्त आश्रव द्वारों से विरत है, वह पुरुष कशील के दोषों से लिप्त नहीं होता है और उनसे लिप्त न होने से वह संसार में बार बार भ्रमण नहीं करता है, इस कारण वह दुःखित होकर रोता नहीं है तथा नाना प्रकार के दुःखों से वह पीड़ित भी नहीं किया जाता है। - पुनरपि कुशीलानेवाधिकृत्याह - फिर से कुशीलों का वर्णन करते हैंजे मायरं च पियरं च हिच्चा, गारं तहा पुत्तपसुंधणं च । कुलाई जे धावइ साउगाई, अहाहु से सामणियस्स दूरे ॥२३॥ छाया - यो मातरच पितरच हित्वाऽगारं तथा पुत्रपशून् धनश । कुलानि यो थावति स्वादुकांनि, अथाहुः स श्रामण्यस्य दूरे ॥ अन्वयार्थ - (जे मायरं च पियर) जो माता पिता को (तहा अगारं पुत्तपसु धणं च हिच्चा) तथा घर, पुत्र, पशु और धन को छोड़कर (साउगाई कुलाई धावइ) स्वादिष्ठ भोजनवाले घरों में दौड़ता है (से सामणियस्स दूरे अहाहु) वह श्रमण भाव से दूर है, यह तीर्थंकरों ने कहा है। भावार्थ - जो पुरुष माता, पिता, घर, पुत्र, पशु और धन को छोड़कर दीक्षा ग्रहण करके भी स्वादिष्ट भोजन से लोभ से स्वादिष्ट भोजनवाले घरों में दौड़ता है, वह साधुपने से दूर है, यह तीर्थंकरो ने कहा है। ___टीका - ये केचनापरिणतसम्यग्धर्माणस्त्यक्त्वा मातरं च पितरं च, मातापित्रोर्दुस्त्यजत्वादुपादानं, अतो भ्रातृदुहित्रादिकमपि त्यक्त्वेत्येतदपि द्रष्टव्यं, तथा 'अगारं' गृहं 'पुत्रम्' अपत्यं 'पशुं हस्त्यश्वरथगोमहिष्यादिकं धनं च त्यक्त्वा सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थाय- पञ्चमहाव्रतभारस्य स्कन्धं दत्त्वा पुनींनसत्त्वतया रससातादिगौरवगृद्धो यः 'कुलानि' गृहाणि 'स्वादुकानि' स्वादुभोजनवन्ति 'धावति' गच्छति, अथासौ श्रामणस्य 'श्रमणभावस्य दूरे वर्त्तते एवमाहुस्तीर्थकरगणधरादय इति ॥२३॥ टीकार्थ - जिनका धर्म अभी परिपक्व नहीं है, वे माता-पिता को (माता-पिता को छोड़ना कठिन है इसलिए यहां इन का ही ग्रहण है, वस्तुत: भाई और पुत्री आदि को भी समझना चाहिए ।) छोड़कर तथा पुत्र और हाथी, घोड़ा, रथ, गाय, भैंस आदि पशु एवं धन को छोड़कर दीक्षा ग्रहण करके संयमरूपी भार में अपना कन्धा लगाता है, वह यदि शक्तिहीन होकर तथा रसलोलुप बनकर स्वादिष्ट भोजनवाले घरों में स्वादिष्ट भोजन के लिए दौड़ा करता है, तो वह भी साधुपने से दूर है, यह तीर्थङ्कर और गणधर आदि ने कहा है ॥२३।। ३८३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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