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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा २४-२५ एतदेव विशेषेण दर्शयितुमाह - ( ग्रन्थाग्रम् ४७५०) जो स्वादिष्ट भोजन के लोभ से स्वादिष्ट भोजनवाले घरों में भिक्षार्थ जाया करते हैं, वे साधु नहीं हैं, इसी बात को विशेषरूप से दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं कुलाई जे धावइ साउगाईं, आघाति धम्मं उदराणुगिद्धे । अहाहु से आयरियाण सयंसे, जे लावएज्जा असणस्स हेऊ छाया - कुलानि यो धावति स्वादुकानि, आख्याति धर्ममुदरानुगृद्धः । अथाहुः स आचार्याणां शतांशे, य आलापयेदशनस्य हेतोः ॥ कुशीलपरिभाषाधिकारः अन्वयार्थ - ( उदराणुगिछे) पेट पालने में तत्पर (जे) जो पुरुष (साउगाई कुलाई धावइ) स्वादिष्ट भोजनवाले घरों में जाते हैं (धम्मं आघाति) तथा वहां जाकर धर्म कथन करते हैं (से आयरियाणं सयंसे) वे आचार्य या आर्य्य के शतांश भी नहीं हैं। असणस हेऊ लावएज्जा ) तथा जो भोजन के लोभ से अपना गुण वर्णन कराते हैं, वे भी आय्यों के शतांश भी नहीं हैं। भावार्थ - जो पेटु स्वादिष्ट भोजन के लोभ से स्वादिष्ट भोजनवाले घरों में भिक्षार्थ जाया करते हैं और वहां जाकर धर्मकथा सुनाते हैं तथा जो भोजन के लिए अपना गुण वर्णन कराते हैं, वे आचायों के शतांश भी नहीं हैं, यह तीर्थङ्करों ने कहा है । - 1138 11 टीका यः कुलानि स्वादुभोजनवन्ति 'धावति' इयर्ति तथा गत्वा धर्ममाख्याति भिक्षार्थं वा प्रविष्टो यद्यस्मै रोचते कथानकसम्बन्धं तत्तस्याख्याति, किम्भूत इति दर्शयति- उदरेऽनुगृद्ध उदरानुगृद्धः- उदरभरणव्यग्रस्तुन्दपरिमृज इत्यर्थः, इदमुक्तं भवति-यो ह्युदरगृद्ध आहारादिनिमित्तं दानश्रद्धकाख्यानि कुलानि गत्वाऽऽख्यायिकाः कथयति स कुशील इति, अथासावाचार्यगुणानामार्यगुणानां वा शतांशे वर्तते शतग्रहणमुपलक्षणं सहस्रांशादेरप्यधो वर्त्तते इति यो ह्यन्नस्य हेतुं - भोजननिमित्तमपरवस्त्रादिनिमित्तं वा आत्मगुणानपरेण 'आलापयेत्' भाणयेत्, असावप्यार्यगुणानां सहस्रांशे वर्तते किमङ्ग पुनर्यः स्वत एवाऽऽत्मप्रशंसा विदधातीति ॥२४॥ किञ्च - ३८४ णिक्खम्म दीणे परभोयणमि, मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे नीवारगिद्धेव महावराहे, अदूरए एहिइ घातमेव टीकार्थ जो साधु नामधारी स्वादिष्ट भोजनवाले घरों में (स्वादु भोजन के लिए) जाता रहता है और जाकर वहां धर्मकथा कहता है, अथवा जो जिसको रूचिकर है, वह कथा उसको कहता है, वह कैसा है ? सो शास्त्रकार दिखाते हैं - वह 'उदरानुगृद्ध है' अर्थात् वह अपने पेट भरण में आसक्त है । आशय यह है कि- जो पेट भरने में आसक्त पुरुष आहार आदि के निमित्त दान में श्रद्धा रखनेवाले घरों में जाकर धर्मकथा कहता है, वह कुशील है । वह पुरुष आचार्य्य अथवा आर्य्य पुरुष के शतांश में भी नहीं है। यहां शत का ग्रहण उपलक्षण है, इसलिए वह सहस्र अंश से भी नीच है । तथा जो भोजन के लिए दूसरे के द्वारा अपना गुण वर्णन कराता है, वह भी आचार्य्य अथवा आर्य्य पुरुष के सहस्रांश में भी नहीं है फिर जो अपना गुण अपने ही मुख से कहता है, उसका तो कहना ही क्या है ? ||२४|| ।।२५।। छाया - निष्क्रम्य दीनः परभोजने, मुखमाङ्गलिक उदरानुगृद्धः । नीवारगृद्ध हव महावराह भदूर एष्यति घातमेव ॥ अन्वयार्थ - (णिक्खम्म) जो पुरुष घर से निकल कर ( परमोयणमि दीणे) दूसरे के ( वहां ) भोजन के लिए दीन बनकर ( मुहमंगलीए ) भाट की तरह दूसरे की प्रशंसा करता है (नीवार गिद्धेव महावराहे) वह चावल के दानों में आसक्त महान् सुअर की तरह ( उदराणुगिद्धे) उदर पोषण में आसक्त है ( अदूरए ) वह शीघ्र ही ( घातमेव ) नाश को ही (एहि ) प्राप्त होगा । भावार्थ - जो पुरुष अपना घर तथा धनधान्य आदि छोड़कर दूसरे के वहां भोजन के लिए दीन होकर भाट की
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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