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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा २६
कुशीलपरिभाषाधिकारः तरह दूसरे की प्रशंसा करता है, वह चावल के दानों में आसक्त बड़े सुअर की तरह पेट भरने में आसक्त है, वह शीघ्र ही नाश को प्राप्त होगा।
___टीका - यो ह्यात्मीयं धनधान्यहिरण्यादिकं त्यक्त्वा निष्क्रान्तो निष्क्रम्य च 'परभोजने' पराहारविषये 'दीनो' दैन्यमुपगतो जिह्वेन्द्रियवशार्लो बन्दिवत् 'मुखमाङ्गलिको' भवति मुखेन मङ्गलानि-प्रशंसावाक्यानि ईदृशस्तादृशस्त्वमित्येवं दैन्यभावमुपगतो वक्ति, उक्तं च
1"से ऐसी जस्स गुणा वियरंतनिवारिया दसदिसासु ।
इहरा कहासु सुच्चसि पच्चक्खं अज्ज दिठ्ठोऽसि ||१||" इत्येवमौदर्य प्रति गृद्धः अध्युपपन्नः, किमिव ?-'निवारः' सूकरादिमृगभक्ष्यविशेषस्तस्मिन् गृद्ध-आसक्तमना गृहीत्वा च स्वयूथं 'महावराहो' महाकायः सूकरः स चाहारमात्रगृद्धोऽतिसंकटे प्रविष्टः सन् 'अदूर एव' शीघ्रमेव 'घातं' विनाशम् 'एष्यति' प्राप्स्यति, एवकारोऽवधारणे, अवश्यं तस्य विनाश एव नापरा गतिरस्तीति, एवमसावपि कुशील आहारमात्रगृद्धः संसारोदरे पौनःपुन्येन विनाशमेवैति ॥२५॥ किञ्चान्यत्
___टीकार्थ - जो अपना धनधान्य आदि छोड़कर निकल गया है, और निकलकर दूसरे के वहां आहार के विषय में दीन होता है तथा जिव्हा के वशीभूत होकर भाट की तरह दूसरे की प्रशंसा करता है अर्थात् आप ऐसे हैं, आप वैसे हैं, इत्यादि प्रशंसा की बातें कहता है, जैसे कि
"वही आप हैं जिसके गुण दश दिशाओं में फेले हैं, पहले मैं कथा में सुनता था परन्तु आज प्रत्यक्ष आप को देखता हूं"।
वह पुरुष पेट भरने में आसक्त है, किसके समान ? सुअर आदि प्राणी के भोजन को नीवार कहते हैं, उसमें आसक्त, विशाल शरीरवाला सुअर अपने यूथ को लेकर जैसे आसक्त होता है और आसक्त होकर भारी संकट में पड़ता है, वह जैसे शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है । एवकार अवधारणार्थक है, अतः अवश्य उसका नाश होता है, दूसरी गति नहीं होती है। इसी तरह पेट भरने में आसक्त वह कुशील भी बार-बार संसार में नाश को प्राप्त होता है ॥२५॥
अन्नस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे । पासत्थयं चेव कुसीलयं च, निस्सारए होइ जहा पुलाए
॥२६॥ छाया - अवस्य पानस्यैहलौकिकस्यानुप्रियं भाषते सेवमानः ।
पार्थस्थाताव कुशीलतां च निःसारो भवति यथा पुलाकः ॥ अन्वयार्थ - (अन्नस्स पाणस्स) अन्न तथा पान (इहलोइयस्स) अथवा वस्त्र आदि इस लोक के पदार्थ के निमित्त (सेवमाणे) सेवक की तरह जो पुरुष (अणुप्पियं भासति) प्रिय भाषण करता है (पासत्थयं चेव कुसीलयं च) वह पार्थस्थ भाव को तथा कुशील भाव को प्राप्त होता है (जहा पुलाए) और वह भूस्सा के समान सार रहित हो जाता है ।
भावार्थ - जो पुरुष अन्न, पान तथा वस्त्र आदि के लोभ से दाता पुरुष को रूचिकर बातें कहता है, वह पार्श्वस्थ तथा कुशील है और वह भूस्सा के समान संयमरूपी सार से रहित है।
टीका - स कुशीलोऽन्नस्य पानस्य वा कृतेऽन्यस्य वैहिकार्थस्य वस्त्रादेः कृते अनुप्रियं भाषते' यद्यस्य प्रियं तत्तस्य वदतोऽनुपश्चाद्भाषते अनुभाषते, प्रतिशब्दकवत् सेवकवद्वा राजाद्युक्तमनुवदतीत्यर्थः, तमेव दातारमनुसेवमान आहारमात्रगृद्धः सर्वमेतत्करोतीत्यर्थः, स चैवम्भूतः सदाचार भ्रष्टः पार्श्वस्थभावमेव व्रजति कुशीलतां च गच्छति, तथा निर्गत:- अपगतः सारः-चारित्राख्यो यस्य स निःसारः, यदिवा-निर्गतः सारो निःसारः स विद्यते यस्यासौ निःसारवान्, पुलाक इव निष्कणो भवति यथा-एवमसौ संयमानुष्ठानं निःसारीकरोति, एवंभूतश्चासौ लिङ्गमात्रावशेषो बहूनां 1. स एष यस्य गुणाः विचरन्त्यनिवारिता दशदिशासु इतरथा कथासु श्रूयते प्रत्यक्षं अद्य दृष्टोऽसि ।।१।।
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