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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा २७
कुशीलपरिभाषाधिकारः स्वयूथ्यानां तिरस्कारपदवीमवाप्नोति, परलोके च निकृष्टानि यातनास्थानान्यवाप्नोति ॥२६॥
टीकार्थ - वह पुरुष, कुशील है, जो अन्न, पान तथा अन्य वस्त्र आदि ऐहलौकिक पदार्थ के लिए प्रिय भाषण करता है। जैसे राजा का सेवक या उसकी हाँ में हाँ मिलानेवाले पुरुष राजा के वचन का अनुवाद करते हैं, उसी तरह वह दाता को प्रसन्न रखने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिलाता है । वह अपने पेट में आसक्त होकर यह सब करता है । आचार भ्रष्ट पुरुष पार्श्वस्थ भाव को प्राप्त होता है और कुशीलपने को धारण करता है। वह पुरुष चारित्ररूपी सार से हीन होने के कारण निःसार है। जैसे भूस्सा अन्न के दाने से रहित होता है, उसी तरह वह पुरुष भी अपने संयम को निःसार कर डालता है। ऐसा पुरुष केवल साधु के लिङ्ग मात्र को धारण करता है परन्तु चारित्र को नहीं धारण करता है । अतः वह स्वयूथिक साधुओं के अपमान का पात्र होता है और परलोक में निकृष्ट यातनास्थान को प्राप्त करता है ॥२६॥
- उक्ताः कुशीलाः, तत्प्रतिपक्षभूतान् सुशीलान् प्रतिपादयितुमाह
- कुशील पुरुषों का स्वरूप कहा जा चुका अब उनके प्रतिपक्ष भूत सुशील पुरुषों का वर्णन करते हैंअण्णातपिण्डेणऽहियासएज्जा, णो पूयणं तवसा आवहेज्जा । सद्देहिं रूवेहिं असज्जमाणं, सव्वेहि कामेहि विणीय गेहिं
॥२७॥ छाया - अज्ञातपिण्डेनादिसहेत्, न पूजनं तपसाऽऽवहेत् । .
शब्दः रूपे रसजन, सर्वेभ्यः कामेभ्यो विनीय गृद्धिम् ।। अन्वयार्थ - (अण्णातपिंडेणऽहियासएज्जा) साधु अज्ञातपिण्ड के द्वारा अपना निर्वाह करे (तवसा पूयणं णो आवहेज्जा) और तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा न करे (सद्देहिं स्वेहिं असज्जमाणं) तथा शब्द और रूप में आसक्त न होता हुआ (सव्वेहि कामेहि गेहिं विणीय) सब विषय कामनाओं से आसक्ति हटाकर संयम का पालन करे ।
भावार्थ - साधु अज्ञात पिण्ड के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करे । तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा न करे । एवं शब्द, रूप और सब प्रकार के विषय भोगों से निवृत्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे ।
टीका - अज्ञातश्चासौ पिण्डश्चज्ञातपिण्ड: अन्तप्रान्त इत्यर्थः, अज्ञातेभ्यो वा-पूर्वापरासंस्तुतेभ्यो वा पिण्डोऽज्ञातपिण्डोऽज्ञातोञ्छवृत्त्या लब्धस्तेनात्मानम् 'अधिसहेत्' वर्तयेत्-पालयेत्, एतदुक्तं भवति-अन्तप्रान्तेन लब्धेनालब्धेन वा न दैन्यं कुर्यात्, नाप्युत्कृष्टेन लब्धेन मदं विदध्यात्, नापि तपसा पूजनसत्कारमावहेत्, न पूजनसत्कार-निमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः, यदिवा पूजा-सत्कारनिमित्तत्वेन तथाविधार्थित्वेन वा महतापि केनचित्तपो मुक्तिहेतुकं न निःसारं कुर्यात्, तदुक्तम्"परं लोकाधिकं धाम, तपःश्रुतमिति द्वयम् । तदेवार्थत्वनिर्गुप्तसारं तृणलवायते ||१||"
यथा च रसेषु गृद्धिं न कुर्यात्, एवं शब्दादिष्वपीति दर्शयति- 'शब्दैः' वेणुवीणादिभिराक्षिप्तः संस्तेषु 'असजन्' आसक्तिमकुर्वन् कर्कशेषु च द्वेषमगच्छन् तथा रूपैरपि मनोज्ञेतरै रागद्वेषमकुर्वन् एवं सर्वेरपि 'कामैः' इच्छामदनरूपैः सर्वेभ्यो वा कामेभ्यो गृद्धिं 'विनीय' अपनीय संयममनुपालयेदिति, सर्वथा मनोज्ञेतरेषु विषयेषु रागद्वेषं न कुर्यात्, तथा चोक्तम्
य भद्दयपावष्टसु, सोयविसयमुवगरसु । तुतुण व रु?ण व, समणेण सया ण होयव्वं ||१|| लवेसु य भयपावरसु, चक्खुविसयमुवगएन्सु | तुह्रण व रुद्रुण व समणेण सया ण होयव्वं ।।२।।
भद्दयपावष्टसु, घाणविसयमुवगएसु । तुह्रण व रुण व समणेण सया ण होयव्वं ||३|| भक्खेसु य भयपावरसु, रसणविसयमुवगरसु | तुह्रण व रुद्रण व, समणेण सया ण होयव्वं ॥४|| फांसेसु य भयपावरसु, फासविसयमुवगएसु । तु?ण व रु?ण व, समणेण सया ण होयव्वं ॥५॥" 1. शब्देषु च भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु तुष्टेन वा रुष्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यं 12. रूपेषु० चक्षुः। 3. गंधेषु० घ्राण०14. भक्ष्येषु
रसना० । 5. स्पर्शेषु स्पर्शन० । ३८६