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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते ससममध्ययने गाथा २८ कुशीलपरिभाषाधिकारः टीकार्थ - अज्ञात अर्थात् नहीं जाना हुआ पिण्ड यानी अन्न-पानी आहार अथवा पहले के और पीछे के परिचय के बिना के गृहस्थों के घरों से लिया हुआ आहार अज्ञात पिण्ड है । उस पिण्ड के द्वारा साधु को अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए । इसका मतलब यह है कि अन्त प्रान्त आहार मिले अथवा न मिले तो साधु को दीन न होना चाहिए। इसी तरह श्रेष्ठ आहार मिलने से मद नहीं करना चाहिए । तथा साधु तप करके पूजा सत्कार की इच्छा न करे। वह पूजा और सत्कार के लिए तप न करे । तथा पूजा सत्कार के निमित्त से अथवा उस तरह की किसी दूसरी वस्तु की इच्छा करके महान साधु मोक्ष के कारण रूप तप को निःसार न करे । वही कहा है "परं लोकाधिकम्" अर्थात् परलोक में श्रेष्ठ स्थान दिलानेवाले तप और श्रुत ये दो ही वस्तु हैं । इनसे, संसारिक पदार्थ की इच्छा करने पर इनका सार निकल जाने से ये तण के टुकड़े की तरह निःसार हो जाते हैं। तथा साधु रस में गृद्धि न करे इसी तरह शब्दादिक विषयों में भी आसक्त न हो यह शास्त्रकार दिखाते हैंवीणा और वेणु आदि के शब्दों को मधुर जानकर उनमें साधु आसक्त न हो, तथा कर्कश वचनों में द्वेष न करे । इसी तरह सुन्दर अथवा विरूप रूपों में राग द्वेष न करे । इसी तरह समस्त काम विकारों में गृद्धि छोड़कर संयम पालन करना चाहिए । तथा सर्वथा सुन्दर अथवा खराब विषयों में राग द्वेष न करना चाहिए । वही कहा है अर्थात् शब्द सुन्दर हो या खराब हो वह कान से सनने में आवे तो साधु उसमें प्रसन्न अथवा अप्रसन्न न हो ॥१॥ रूप सुन्दर या खराब आँख के सामने आवे तो साधु कभी भी प्रसन्न या अप्रसन्न न हो ॥२॥ गन्ध, अच्छा या बुरा नाक में आवे तो साधु कभी भी प्रसन्न या अप्रसन्न न हो ॥३॥ भोजन स्वादिष्ट या खराब मुख के सामने आवे तो साधु प्रसन्न या अप्रसन्न न हो ॥४॥ स्पर्श भला या बुरा शरीर को स्पर्श करे तो साधु प्रसन्न या अप्रसन्न कभी न हो ॥२७॥ - यथा चेन्द्रियनिरोधो विधेय एवमपरसङ्गनिरोधोऽपि कार्य इति दर्शयति - साधु जिस प्रकार दूसरे इन्द्रियों का निरोध करे इसी तरह दूसरे सम्बन्धों का भी निरोध करे यह शास्त्रकार दिखलाते हैंसव्वाइं संगाइं अइच्च धीरे, सव्वाइं दुक्खाई तितिक्खमाणे । अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा ॥२८॥ छाया - सर्वान् सजानतीत्यधीरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः । अखिलोगृद्धोऽनियतचारी, अभयङ्करो भिक्षुरनाविलाल्मा ॥ अन्वयार्थ - (धीरे भिक्खु) बुद्धिमान् साधु (सव्वाई संगाई अइच्च) सब सम्बधों को छोडकर (सव्वाई दुक्खाई तितिक्खमाणे) सब दुःखों को सहन करता हुआ (अखिले अगिद्धे अणिएयचारी) ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्पूर्ण तथा विषय भोग में आसक्त न होता हुआ एवं अप्रतिबद्धविहारी (अभयकरे) प्राणियों को अभय देनेवाला (अणाविलप्पा) तथा विषय कषायों से अनाकुल आत्मावाला होकर अच्छी रीति से संयम का पालन करता है। भावार्थ- बुद्धिमान साधु सब सम्बन्धों को छोड़कर सब प्रकार के दुःखों को सहन करता हुआ ज्ञान, दर्शन औ चारित्र से सम्पूर्ण होता है तथा वह किसी भी विषय में आसक्त न होता हुआ अप्रतिबद्धविहारी होता है । एवं वह प्राणियों को अभय देता हुआ विषय और कषायों से अनाकुल आत्मावाला होकर योग्य रीति से संयम का पालन करता है। टीका - सर्वान् 'सङ्गान्' संबन्धान् आन्तरान् स्नेहलक्षणान् बाह्यांश्च द्रव्यपरिग्रहलक्षणान् 'अतीत्य' त्यक्त्वा 'धीरो' विवेकी सर्वाणि 'दुःखानि' शारीरमानसानि त्यक्त्वा परीषहोपसर्गजनितानि 'तितिक्षमाणः' अधिसहन् अखिलो ज्ञान दर्शनचारित्रैः संपूर्णः तथा कामेष्वगृद्धस्तथा 'अनियतचारी' अप्रतिबद्धविहारी तथा जीवानामभयंकरो भिक्षणशीलो भिक्षुः-साधुः एवम् 'अनाविलो' विषयकषायैरनाकुल आत्मा यस्यासावनाविलात्मा संयममनुवर्तत इति ॥२८॥ किश्चान्यत् टीकार्थ - सब सम्बन्ध अर्थात् अन्दर का सम्बन्ध जो स्नेह है और बाहर का सम्बन्ध जो द्रव्यपरिग्रह है। ३८७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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