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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते ससममध्ययने गाथा २९-३०
कुशीलपरिभाषाधिकारः इन दोनों प्रकार के सम्बन्धों को छोड़कर, धीर यानी विवेकी पुरुष, शरीर और मन के दुःखों को छोड़कर तथा परिषह और उपसगों से उत्पन्न दुःखों को सहता हुआ ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्पूर्ण बनता है । तथा वह काम वासनाओं में आसक्त न होता हुआ अप्रतिबद्धविहारी होता है । तथा सब जीवों को अभय देता हुआ, वह साधु विषय और कषायों से आकुल आत्मा वाला न होता हुआ योग्य रीति से संयम क
भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा, कंखेज्ज पावस्स विवेग भिक्खू । दुक्खेण पुढे धुयमाइएज्जा, संगामसीसे व परं दमेज्जा
॥२९॥ छाया - भारस्य यात्राये मुनिर्भुशीत, काइक्षेत् पापस्य विवेकं भिक्षुः ।
दुःखेन स्पृष्टो थूतमाददीत, सङ्ग्रामशीर्ष इव परं दमयेत् ॥ अन्वयार्थ - (मुणि भारस्स जत्ता) साधु पांच महाव्रत की रक्षा के लिए (भुंजएज्जा) भोजन खावे । (भिक्खू पावस्स विवेग कंखेज्ज) भिक्षु अपने पाप को त्यागने की इच्छा करे (दुक्खेन पुढे धुयमाइएज्जा) तथा दुःख से स्पर्श पाता हुआ संयम अथवा मोक्ष में ध्यान रखे (संगामसीसे व परं दमेज्जा) युद्धभुमि में सुभट पुरुष जैसे शत्रु वीर को दमन करता है, इसी तरह साधु कर्मरूपी शत्रुओं को दमन करे।
भावार्थ - मुनि संयम निर्वाह के लिए आहार ग्रहण करे तथा अपने पूर्व पाप को दूर करने की इच्छा करे । जब साधु पर परीषह और उपसगों का कष्ट पड़े तब वह मोक्ष या संयम में ध्यान रखें । जैसे सुभट पुरुष युद्धभुमि में शत्रु को दमन करता है, उसी तरह वह कर्मरूपी शत्रुओं को दमन करे ।
टीका - संयमभारस्य यात्रार्थ-पञ्चमहाव्रतभारनिर्वाहणार्थ 'मुनिः' कालत्रयवेत्ता 'भुञ्जीत' आहारग्रहणं कुर्वीत, तथा 'पापस्य' कर्मणः पूर्वाचरितस्य 'विवेक' पृथग्भावं विनाशमाकाक्षेत् "भिक्षुः' साधुरिति, तथा-दुःखयतीति दुःखं-परीषहोपसर्गजनिता पीडा तेन 'स्पृष्टो' व्याप्तः सन् 'धूतं' संयमं मोक्षं वा 'आददीत' गृह्णीयात्, यथा सुभटः कश्चित् सङ्ग्रामशिरसि शत्रुभिरभिद्रुतः ‘परं' शत्रु दमयति एवं परं- कर्मशत्रु परीषहोपसर्गाभिद्रुतोऽपि दमयेदिति ॥२९॥ अपि च
टीकार्थ - तीनों काल को जाननेवाला मुनि पाँच महाव्रतरूपी भार के निर्वाह के लिए आहार ग्रहण करे तथा अपने पूर्व पाप के नाश की इच्छा करे । जो दुःख देता है, उसे दुःख कहते हैं, वह परीषह तथा उपसर्गों से उत्पन्न पीड़ा है, उस पीड़ा से स्पर्श पाया हुआ साधु संयम अथवा मोक्ष में ध्यान रखे । जैसे कोई सुभट पुरुष युद्धभूमि में शत्रुवीरों के द्वारा पीड़ित किया जाता हुआ, शत्रुवीरों को दमन करता है, इसी तरह साधु परीषह और उपसर्गों से पीड़ित किया जाता हुआ भी कर्मरूपी शत्रुओं का दमन करे ॥२९।।
अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी, समागमं कंखति अंतकस्स । णिधूय कम्मं ण पवंचुवेइ, अक्खक्खए वा सगडं । त्ति बेमि
॥३०॥ इति कुसीलपरिभासियं सत्तममज्झयणं समत्तं ।। (गाथाग्रं०४०२) छाया - अपि हव्यमानः फलकावतष्टी, समागम काक्षत्यन्तकस्य ।
निषूय कर्म न प्रपशमुपैति, अक्षक्षय इव शकटमिति ब्रवीमि || अन्वयार्थ (अवि हम्ममाणे) साधु परीषह और उपसर्गों के द्वारा पीड़ा पाता हुआ भी उसे सहन करे (फलगावतट्ठी) जैसे काठ की पाटिया दोनों तरफ से छीली जाती हुई राग, द्वेष नहीं करती है, उसी तरह साधु बाह्य और आभ्यन्तर तप से कष्ट पाता हआ भी राग द्वेष न करे (अंतकस्स समागमं कखति) किन्तु मृत्यु के आने की प्रतीक्षा करे (णिधूय कम्मं ण पवंचुवेइ) इस प्रकार कर्म को दूर कर साधु जन्म मरण और रोग शोक आदि को प्राप्त नहीं करता है (अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि) जैसे अक्ष (धुरा) के टुट जाने से गाड़ी आगे नहीं चलती है, यह मैं कहता हूं।
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