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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा ८
संस्वेदजाः काष्ठसमाश्रिताश्चैतान् दहेदग्नि समारभमाणः ॥
अन्वयार्थ - ( पुढवीवि जीवा ) पृथिवी भी जीव है ( आपोऽपि जीवा) जल भी जीव है ( संपाइम पाणा संपयंति) तथा सम्पातिम जीव यानी पतङ्ग आदि आग में पड़कर मरते हैं (संसेयया) स्वेद से उत्पन्न प्राणी (कट्ठसमस्सिया) तथा काठ में रहनेवाले जीव, (अगणि समारभंते एते दहे) अग्निकाय का आरम्भ करनेवाला पुरुष इन जीवों को जलाता है ।
भावार्थ - जो जीव अग्नि जलाता है, वह पृथिवीकाय के जीव को, पतङ्ग आदि को, स्वेदज प्राणी को तथा काठ में रहनेवाले जीवों को जलाता है ।
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टीका न केवलं पृथिव्याश्रिता द्वीन्द्रियादयो जीवा यापि च पृथ्वी- मृल्लक्षणा असावपि जीवा, तथा आपश्चद्रवलक्षणा जीवास्तदाश्रिताश्च प्राणाः 'सम्पातिमा: : ' शलभादयस्तत्र सम्पतन्ति, तथा 'संस्वेदजा:' करीषादिष्विन्धनेषु घुणपिपीलिकाकृम्यादयः काष्ठाद्याश्रिताश्च ये ये केचन 'एतान्' स्थावरजङ्गमान् प्राणिनः स दहेद् योऽग्निकार्यं समारभेत, ततोऽग्निकायसमारम्भो महादोषायेति ॥७॥
टीकार्थ - पृथिवी के आश्रित द्वीन्द्रिय आदि ही जीव नहीं है किन्तु मिट्टीरूप जो पृथिवी है, वह भी जीव है तथा द्रवलक्षणवाला जल भी जीव है तथा जल के आश्रित प्राणी भी जीव हैं, एवं आग जलाने पर पतङ्ग आदि उड़कर उसमें गिरते हैं एवं कण्डा ( छाणा) आदि इन्धनों में उत्पन्न जीव, घूण और कीड़ी आदि तथा काठ में रहनेवाले प्राणी, इन सब जीवों को वह पुरुष जलाता है, जो अग्निकाय का आरम्भ करता है, अतः अग्निकाय का आरम्भ महान दोष के लिए है ||७||
एवं तावदग्निकायसमारम्भकास्तापसाः तथा पाकादनिवृत्ताः शाक्यादयश्चापदिष्टाः, साम्प्रतं ते चान्ये वनस्पतिसमारम्भादनिवृत्ताः परामृश्यन्ते इत्याह
कुशीलपरिभाषाधिकारः
इस प्रकार अग्निकाय का आरंभ करनेवाले तापस तथा पाक से अनिवृत शाक्यादि कहे, अब और अन्य जो वनस्पति आरंभ से अनिवृत है, उनका विचार किया जाता है
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हरियाणि भूताणि विलंबगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई ।
जे छिंदती आयसुहं पडुच्च, पागब्भि पाणे बहुणं तिवाती
छाया
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हरितानि भूतानि विलम्बकानि, आहारदेहाय पृथक् स्थितानि । यच्छिनत्त्यात्मसुखं प्रतीत्य, प्रागल्भयात् प्राणानां बहुनामतिपाती ॥
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॥८॥
अन्वयार्थ - (हरियाणि) हरी दूब और अङ्कुर आदि भी ( भूताणि) जीव है । (विलंबगाणि) वे भी जीव का आकार धारण करते हैं। (पुढो सियाइ) ये मूल स्कन्ध शाखा और पत्र आदि में अलग अलग रहते हैं । (जे आयसुखं पडुच्च) जो पुरुष अपने सुख के लिए (आहार देहाय ) और आहार करने तथा शरीर की पुष्टि के लिए (छिंदती) इनका छेदन करता है (पागब्मि पाणे बहुणं तिवाती) वह धृष्ट पुरुष बहुत प्राणियों का नाश करता है ।
भावार्थ हरी दूब तथा अङ्कुर आदि भी जीव हैं और वे जीव वृक्षों के मूल शाखा पत्र आदि में अलग अलग रहते हैं । इन जीवों को जो अपने सुख के लिए छेदन करता है, वह बहुत प्राणियों का विनाश करता है ।
टीका - 'हरितानि' दुर्वाङ्कुरादीन्येतान्यप्याहारादेर्वृद्धिदर्शनात् 'भूतानि' जीवाः तथा 'विलम्बकानीति' जीवाकारं यान्ति विलम्बन्ति-धारयन्ति, तथाहि - कललार्बुदमांसपेशीगर्भप्रसवबालकुमारयुवमध्यस्थविरावस्थातो मनुष्यो भवति, एवं हरितान्यपि शाल्यादीनि जातान्यभिनवानि संजातरसानि यौवनवन्ति परिपक्वानि जीर्णानि परिशुष्काणि मृतानि तथा वृक्षा अप्यङ्कुरावस्थायां जाता इत्युपदिश्यन्ते मूलस्कन्धशाखाप्रशाखादिभिर्विशेषैः परिवर्धमाना युवानः पोता इत्युपदिश्यन्त इत्यादि शेषास्वप्यवस्थास्वायोज्यं, तदेवं हरितादीन्यपि जीवाकारं विलम्बयन्ति, तत एतानि मूलस्कन्धशाखापत्रपुष्पादिषु स्थानेषु 'पृथक्' प्रत्येकं 'श्रितानि' व्यवस्थितानि, न तु मूलादिषु सर्वेष्वपि समुदितेषु एक एव जीवः, एतानि च भूतानि