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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा ७ घात करता है, इसलिए बुद्धिमान् पण्डित पुरुष अग्निकाय का आरम्भ न करे । टीका तपनतापनप्रकाशादिहेतुं काष्ठादिसमारम्भेण योऽग्निकार्यं समारभते सोऽग्निकायमपरांश्च पृथिव्याद्याश्रितान् स्थावरांस्त्रसांश्च प्राणिनो निपातयेत्, त्रिभ्यो वा मनोवाक्कायेभ्य आयुर्बलेन्द्रियेभ्यो वा पातयेन्निपातयेत् (त्रिपातयेत्), तथाऽग्निकायमुदकादिना 'निर्वापयन् ' विध्यापयंस्तदाश्रितानन्यांश्च प्राणिनो निपातयेत्त्रिपात्येद्वा तत्रोज्ज्वालकनिर्वापकयोर्योऽग्निकायमुज्ज्वलयति स बहुनामन्यकायानां समारम्भकः, तथा चागमः - "दो भंते ! पुरिसा अन्नमन्त्रेण सद्धिं अगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ एगे णं पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, तेसिं भंते ! पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए ?, गोयमा ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारभति, एवं आउकायं वाउकायं वणस्सइकायं तसकायं अप्पत्तरागं अगणिकायं समारभइ, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारभइ जाव अप्पतरागं तसकायं समारभइ बहुतरागं अगणिकायं समारभइ, से एतेणं अद्वेगं गोयमा ! एवं वुच्चइ''।। अपि चोक्तम्- "1 भूयाणं एसमाघाओ, हव्ववाओ ण संसओ" इत्यादि । यस्मादेवं तस्मान् 'मेधावी' सदसद्विवेकज्ञः सश्रुतिकः समीक्ष्य धर्मं पापाड्डीनः पण्डितो नाग्निकायं समारभते, स एव च परमार्थतः पण्डितो योऽग्निकायसमारम्भकृतात् पापान्निवर्तत इति ||६|| टीकार्थ तपन, तापन और प्रकाश आदि के कारणरूप अग्नि को जो काठ आदि डालकर जलाता है, वह अग्निकायके जीव को तथा दूसरे पृथिवी आदि के आश्रित स्थावर और त्रस प्राणियों का घात करता है । अथवा वह पुरुष प्राणियों को मन, वचन और काय से अथवा आयु, बल और इन्द्रियों से विनाश करता है । तथा जो पुरुष पानी आदि के द्वारा अग्निकाय को बुझाता है, वह अग्निकाय के जीव को तथा दूसरे अग्नि के आश्रित जीवों का नाश करता है । जो आग जलाता है और जो आग बुझाता है, इन दोनों में आग जलानेवाला बहुत दूसरे काय के जीवों का विनाश करता है । इस विषय में यह आगम है अग्निकाय का आरम्भ करते हैं, एक तो लगता है और अल्प कर्म किसको लगता गौतम! जो पुरुष आग जलाता है, वह (दो भंते!) गौतम स्वामी पूछते हैं कि "हे भगवन्! दो पुरुष आग जलाता है और दूसरा बुझाता है, इन दोनों में अधिक कर्म किसको है ? | इसका उत्तर देते हुए भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे पृथिवीकाय, अप्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय का बहुत आरम्भ करता है और अग्निकाय का अल्प आरम्भ करता है परन्तु जो अग्निकाय को बुझाता है, वह पृथिवीकाय जलकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, तथा त्रसकाय के जीवों का अल्प आरम्भ करता है परन्तु अग्निकाय के जीव का बहुत आरम्भ करता है, इसलिए हे गौतम! मैं यह कहता हूं"। फिर भी कहा है कि (भूयाणं) अर्थात् अग्नि का आरम्भ जीवों का नाशक है, इसमें संशय नहीं है । अतः सत् और असत् का विवेक रखनेवाले विद्वान्, पुरुष, धर्म का विचारकर अग्निकाय का आरम्भ नहीं करते हैं। जो पाप से निवृत्त है, वे ही पण्डित हैं । वस्तुतः वे ही पण्डित हैं जो अग्निकाय के आरम्भरूप पाप से निवृत्त हैं ||६|| कुशीलपरिभाषाधिकारः - कथमग्निकायसमारम्भेणापरप्राणिवधो भवतीत्याशङ्कयाह अग्निकाय का आरम्भ करने से कैसे दूसरे प्राणियों का घात होता है ? यह आशङ्का करके शास्त्रकार समाधान देते हैं पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति । संसेयया कट्ठसमस्सिया य, एते दहे अगणि समारभंते छाया - पृथिव्यपि जीवा आपोऽपि जीवाः प्राणाश्च सम्पातिमाः सम्पतन्ति । 1. भूतानामेष आघातो हव्यवाहो न संशयः ।। ॥७॥ ३६९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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