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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा ५-६ कुशीलपरिभाषाधिकारः अहाहु से लोए कुसीलधम्मे, भूताई जे हिंसति आयसाते ॥५॥ छाया - यो मातरं वा पितरश्च हित्वा, श्रमणाव्रतेऽद्वियं समारभेत । अथाहुः स कुशीलधर्मा भूतानि यो हिनस्त्यात्मसाते ॥ ____ अन्वयार्थ - (जे) जो पुरुष (मायरं वा पियरं च हिच्चा) माता और पिता को छोड़कर (समणव्वए) श्रमण व्रत ग्रहण करके (अगणि समारभिज्जा) अनिकाय का आरम्भ करते हैं तथा (जे आयसाते) जो अपने सुख के लिए (भूताई हिंसति) प्राणियों की हिंसा करते हैं (से लोए कुसीलधम्मे) वे लोग कुशील धर्मवाले हैं (अहाहु) यह सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है ॥ भावार्थ - जो लोग माता पिता को छोड़कर श्रमणव्रत को धारण करके अग्निकाय का आरम्भ करते हैं तथा जो अपने सुख के लिए भूतों की हिंसा करते हैं, वे कुशील धर्मवाले हैं, यह सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है। टीका - ये केचनाविदितपरमार्था धर्मार्थमुत्थिता मातरं पितरं च त्यक्त्वा, मातापित्रोर्दुस्त्यजत्वात् तदुपादानमन्यथा प्रातूपुत्रादिकमपि त्यक्त्वेति द्रष्टव्यं, श्रमणव्रते किल वयं समुपस्थिता इत्येवमभ्युपगम्याग्निकार्य समारभन्ते, पचनपाचनादिप्रकारेण कृतकारितानुमत्यौदेशिकादिपरिभोगाच्चाग्निकायसमारम्भं कुर्युरित्यर्थः, अथेति, वाक्योपन्यासार्थः, 'आहु' रिति तीर्थकृद्गणधरादय एवमुक्तवन्तः- यथा सोऽयं पाषण्डिको लोको गृहस्थलोको वाऽग्निकायसमारम्भात् कुशील:- कुत्सितशीलो धर्मो यस्य स कुशीलधर्मा, अयं किम्भूत इति दर्शयति- अभूवन भवन्ति भविष्यन्तीति भूतानि-प्राणिनस्तान्यात्मसुखार्थ हिनस्ति' व्यापादयति, तथाहि-पञ्चाग्नितपसा निष्टप्तदेहास्तथाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया पाषण्डिकाः स्वर्गावाप्तिमिच्छन्तीति, तथा लौकिकाः पचनपाचनादिप्रकारेणाग्निकार्य समारभमाणाः सुखमभिलषन्तीति ॥५॥ टीकार्थ - जो जीव परमार्थ को नहीं जानते हैं तथा धर्माचारण करने के लिए प्रवृत्त होकर एवं माता-पिता को छोड़कर माता पिता को छोड़ना कठिन है, इसीलिए यहां माता पिता को छोड़ना कहा है, नहीं तो भाइ पुत्र आदि को भी छोड़ना यहां समझना चाहिए हम श्रमण व्रत में स्थित हैं, ऐसा स्वीकार करके अग्निकाय का आरम्भ करते हैं अर्थात् वे पचन और पाचन आदि के द्वारा अग्निकाय का आरम्भ करते हैं, वे पाषण्डीलोग अथवा गृहस्थलोग अग्निकाय के आरम्भ करने से कुशील है, जिसके धर्म का स्वभाव कुत्सित है, उसे कुशीलधर्मा कहते हैं । यह तीर्थङ्कर तथा गणधर आदि ने कहा है। ये कुशील कैसे हैं ? सो शास्त्रकार दिखलाते हैं- जो हो चुके हैं और होते हैं तथा जो होंगें उन्हें भूत कहते हैं । भूत, प्राणियों का नाम है, उन प्राणियों का अपने सुख के लिए जो घात करते हैं, वे कुशील हैं । पाषण्डी लोग पञ्चाग्नि के सेवनरूप तपस्या से अपने शरीर को तपाते हैं तथा अग्निहोम आदि क्रिया से स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा करते हैं, तथा लौकिक पुरुष पाचन आदि के द्वारा अग्निकाय का आरम्भ करके सुख की इच्छा करते हैं, ये सब कुशील हैं ॥५॥ - अग्निकायसमारम्भे च यथा प्राणातिपातो भवति तथा दर्शयितुमाह - अग्निकाय के आरम्भ करने से जिस प्रकार प्राणातिपात होता है, सो दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैंउज्जालओ पाण निवातएज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा । तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म,ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ॥६॥ छाया - उज्ज्वालकः प्राणान् निपातयेत्, निर्वापकोऽठिन निपातयेत् । तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म न पण्डितोऽग्नि समारभेत् ॥ अन्वयार्थ - (उज्जालओ) आग जलानेवाला पुरुष (पाण निवातएज्जा) प्राणियों का घात करता है (निव्वावओ) और आग बुझानेवाला पुरुष (अगणि निवायेज्जा) अनिकाय के जीव का घात करता है। (तम्हाउ) इसलिए (महावि) बुद्धिमान् (पंडिए) पण्डित पुरुष (धम्म समिक्ख) धर्म को देखकर (अगणि ण समारभिज्जा) अनिकाय का आरम्भ न करे । भावार्थ- आग जलानेवाला पुरुष जीवों का घात करता है और आग बुझानेवाला पुरुष अनिकाय के जीवों का ३६८
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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