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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते ससममध्ययने गाथा ४ कुशीलपरिभाषाधिकारः भावार्थ- कोई कर्म, इसी जन्म में अपना फल कर्ता को देता है और कोई दूसरे जन्म में देता है । कोइ एक ही जन्म में देता है और कोइ सैकडों जन्मों में देता है । कोइ कर्म जिस तरह किया गया है, उसी तरह फल देता है और कोइ दूसरी तरह से देता है । कुशील पुरुष सदा संसार में भ्रमण करते रहते हैं और वे एक कर्म का फल दुःख भोगते हुए फिर आर्तध्यान करके दूसरा कर्म बाँधते हैं । वे अपने पाप का फल सदा भोगते रहते हैं। टीका - यान्याशुकारीणि कर्माणि तान्यस्मिन्नेव जन्मनि विपाकं ददति, अथवा परस्मिन् जन्मनि नरकादौ तस्य कर्म विपाकं ददति, एकस्मिन्नेव जन्मनि विपाकं तीवं ददति 'शताग्रशो वे'ति बहुषु जन्मसु, येनैव प्रकारेण तदशुभमाचरन्ति तथैवोदीर्यते तथा- 'अन्यथा वेति, इदमुक्तं भवति-किञ्चित्कर्म तद्भव एव विपाकं ददाति किञ्चिच्च जन्मान्तरे, यथा- मृगपुत्रस्य दुःखविपाकाख्ये विपाकश्रुताङ्गश्रुतस्कन्धे कथितमिति, दीर्घकालस्थितिकं त्वपरजन्मान्तरितं वेद्यते, येन प्रकारेण सकृत्तथैवानेकशो वा, यदिवाऽन्येन प्रकारेण सकृत्सहस्रशो वा शिरच्छेदादिकं हस्तपादच्छेदादिकं चानुभूयत इति, तदेवं ते कुशीला आयतदण्डाश्चतुर्गतिकसंसारमापन्ना अरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारं पर्यटन्तः 'परं परं' प्रकृष्टं प्रकृष्टं दुःखमनुभवन्ति, जन्मान्तरकृतं कर्मानुभवन्तश्चैकमार्तध्यानोपहता अपरं बध्नन्ति वेदयन्ति च, दुष्टं नीतानि दुर्नीतानि-दुष्कृतानि, न हि स्वकृतस्य कर्मणो विनाशोऽस्तीतिभावः, तदुक्तम् “मा होहि रे विसल्लो जीव! तुमं विमणदुम्मणो दीणो । णहु चिंतिएण फिट्टइ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ||१|| जड़ पविससि पायालं अडविं व दरिं गुहं समुह वा । पुवकयाउ न चुक्कसि अप्पाणं घायसे जइवि ॥२॥" ॥४॥ टीकार्थ - जो कर्म शीघ्र फल देनेवाले हैं, वे इसी जन्म में अपने कर्ता को फल देते हैं । अथवा दूसरे जन्म में नरक आदि में वे अपना फल देते हैं। वे कर्म एक ही जन्म में अपना तीव्र विपाक उत्पन्न करते हैं अथवा बहुत जन्मों में उत्पन्न करते हैं । प्राणी जिस प्रकार अशुभ कर्म करता है, उसी तरह वह कर्म फल देता है अथवा और तरह से भी देता है । आशय यह है कि-कोई कर्म उसी भव में अपना विपाक देता है और कोई दूसरे जन्म में देता है, जैसे कि-दुःख विपाक नामक विपाक श्रुताङ्ग श्रुतस्कन्ध में मृगापुत्र के विषय में कहा है। तथा जिसकी दीर्घकाल की स्थिति है, वह कर्म दूसरे जन्म में अपना फल देता है । एवं जिस प्रकार वह कर्म किया गया है, उसी प्रकार वह अपने कर्ता को एकबार या अनेक बार फल देता है अथवा वह दूसरी तरह से एकबार अथवा हजारों बार शिर का छेदन तथा हाथ पैर आदि का छेदनरूप फल कर्ता को देता है। इसी प्रकार प्राणियों को बहुत दण्ड देनेवाले वे कुशील जीव, चतुर्गतिक संसार में पड़े हुए अरहट यन्त्र की तरह बार-बार संसार में भ्रमण करते रहते हैं और बड़े से बड़े दुःख भोगते हैं। पूर्व जन्म के एक कर्म का फल भोगते हुए वे आर्तध्यान करके फिर दूसरा कर्म बांधते हैं और अपने पापकर्म का फल भोगते हैं। अपने किये हुए कर्म का फल भोगे बिना नाश नहीं होता है । यह भाव है, अत एव कहा है कि (मा होहि) अर्थात् हे जीव! तुम उदास, दीन, तथा दुःखितचित्त मत बनों क्योंकि जो दुःख तुमने पहले पैदा किया है, वह चिन्ता करने से मिट नहीं सकता है । चाहे तुम पाताल में प्रवेश करो अथवा किसी जङ्गल में जाओ या पहाड़ की गुफा में छिप जाओ अथवा अपने आत्मा का ही घात कर डालो परन्तु पूर्वजन्म के कर्म से तुम बच नहीं सकते ॥४॥ - एवं तावदोघतः कुशीलाः प्रतिपादिताः, तदधुना पाषण्डिकानधिकृत्याह - इसी प्रकार सामान्य रूप से कुशील पुरुष कहे गये हैं अब शास्त्रकार पाषण्डियों के विषय में कहते हैंजे मायरं वा पियरं च हिच्चा, समणव्वए अगणिं समारभिज्जा । 1. मा भव रे विषण्णो जीव ! त्वं विमना दुर्मना दीनः। नैव चिन्तितेन स्फेटते तदुखं यत्पुरा रचितं ।।१।। 2. यदि प्रविशसि पातालं अटवीं वा दरी गुहां समुद्रं वा । पूर्वकृतान्नेव भ्रश्यसि आत्मानं घातयसि यद्यपि ॥ ३६७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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