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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते ससममध्ययने गाथा ३-४ कुशीलपरिभाषाधिकारः से जाति जाति बहुकूरकम्मे, जं कुव्वती मिज्जति तेण बाले ||३|| छाया - जातिपथमनुपरिवर्तमानस्नसस्थावरेषु विनिघातमेति । स जाति जाति बहुक्रूरकर्मा, यत् करोति मियते तेन बालः ॥ अन्वयार्थ - (जाईपह) एकेन्द्रिय आदि जातियों में (अणुपरिवट्टमाणे) जन्मता और मरता हुआ (से) वह जीव (तसथावरेहिं) त्रस और 1 में उत्पन्न होकर (विणिघायमेति) नाश को प्राप्त होता है। (जाति जातिं बहुकूरकम्मे) बार बार जन्म लेकर बहुत क्रूर कर्म करने वाला वह (बाल) अज्ञानी जीव (जं कुव्वती) जो कर्म करता है (तण मिज्जति) उसी से मृत्यु को प्राप्त होता है। भावार्थ - एकेन्द्रिय आदि पूर्वोक्त प्राणियों को दण्ड देनेवाला जीव बार-बार उन्हीं एकेन्द्रिय आदि योनियों में जन्मता और मरता है। वह त्रस और स्थावरों में उत्पन्न होकर नाश को प्रास होता है। वह बार-बार जन्म लेकर क्रूर कर्म करता हुआ जो कर्म करता है, उसीसे मृत्यु को प्राप्त होता है। टीका - जातीनाम्-एकेन्द्रियादीनां पन्था जातिपथः, यदिवा-जाति:- उत्पत्तिर्वधो-मरणं जातिश्च वधश्च जातिवधं तद् 'अनुपरिवर्तमानः' एकेन्द्रियादिषु पर्यटन् जन्मजरामरणानि वा बहुशोऽनुभवन् 'त्रसेषु' तेजोवायुद्वीन्द्रियादिषु 'स्थावरेषु' च पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु समुत्पन्नः सन् कायदण्डविपाकजेन कर्मणा बहुशो विनिघातं विनाशमेति अवाप्नोति स आयात दण्डोऽसुमान् ‘जाति जातिम्' उत्पत्तिमुत्पत्तिमवाप्य बहूनि क्रूराणि-दारुणान्यनुष्ठानानि यस्य स भवति बहुक्रूरकर्मा, स एवम्भूतो निर्विवेकः सदसद्विवेकशून्यत्वात् बाल इव बालो यस्यामेकेन्द्रियादिकायां जातौ यत्प्राण्युपमर्दकारि कर्म कुरुत्ते स तेनैव कर्मणा 'मीयते' भियते पूर्यते यदिवा 'मीङ् हिंसायां' मीयते हिंस्यते अथवा-बहु-क्रूरकर्मेति चौरोऽयं पारदारिक इति वा इत्येवं तेनैव कर्मणा मीयते-परिच्छिद्यत इति ।।३।। टीकार्थ - एकेन्द्रिय आदि जातियों के मार्ग को 'जातिपथ' कहते हैं । अथवा उत्पत्ति को जाति कहते हैं और मरण को 'वध' कहते हैं, इन दोनों के समूह को 'जातिवध' कहते हैं। उसमें परिभ्रमण करता हुआ जीव, अर्थात् एकेन्द्रिय आदि जातियों में भ्रमण करता हुआ अथवा बार-बार जन्म और मरण का अनुभव करता हुआ वह जीव, तेउ, वायु, और द्वीन्द्रिय आदि त्रस प्राणियों में तथा पृथिवी, जल और वनस्पति आदि स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होकर जीवों के दण्डरूपी कर्म के विपाक से बार-बार नाश को प्राप्त होता है । प्राणियों को अत्यन्त दण्ड देनेवाला तथा बार-बार जन्म पाकर उनमें बहुत क्रूर कर्म करनेवाला वह जीव सद् और असत् के विवेक से हीन होने के कारण बालक के समान अज्ञानी है, वह जिस एकेन्द्रिय आदि जाति में प्राणियों का विनाशक जो कर्म करता है, उसी कर्म से वह मर जाता है अथवा वह उसी कर्म से मारा जाता है अथवा वह बहुत क्रूर कर्म करनेवाला पुरुष "यह चोर है,.यह परस्त्रीलम्पट है" इत्यादि रूप से उसी कर्म के द्वारा लोक में बताया जाता है ॥३॥ - क्व पुनरसौ तैः कर्मभिर्मीयते इति दर्शयति - कुशील पुरुष अपने कर्मों से कहाँ कष्ट पाता है ? यह शास्त्रकार दिखलाते हैं, अस्सिं च लोए अदुवा परत्था, सयग्गसो वा तह अन्नहा वा । संसारमावन्न परं परं ते, बंधति वेदंति य दुनियाणि ॥४॥ छाया - अस्मिश्च लोकेऽथवा परस्तात्, शताग्रशो वा तथाऽन्यथा वा । संसारमापवाः परं परं ते, बधान्ति वेदयन्ति च दुर्नीतानि || अन्वयार्थ - (अस्सि च लोए) इसलोक में (अदुवा परत्था) अथवा परलोक में वे कर्म अपना फल देते हैं । (सयग्गसो वा तह अन्नहा वा) वे एक जन्म में अथवा सैकडों जन्मों में फल देते हैं । जिस प्रकार वे कर्म किये गये हैं, उसी तरह अपना फल देते हैं अथवा दूसरी तरह भी देते हैं । (संसारमावन्न ते) संसार में भ्रमण करते हुए वे कुशील जीव, (परं परं) बड़े से बड़े दुःख भोगते हैं । (बंधति वेदंति य दुनियाणि) वे आर्तध्यान करके फिर कर्म बाँधते हैं और अपने पाप कर्म का फल भोगते हैं। ३६६
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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