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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा २
कुशीलपरिभाषाधिकारः सूक्ष्मा बादराश्च, ते च प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विधा, एवमप्कायिका अपि तथाऽग्निकायिका वायुकायिकाश्च द्रष्टव्याः, वनस्पतिकायिकान भेदेन दर्शयति- 'तणानि' कशादीनि 'वक्षाश्च' अश्वत्थादयो 'बीजानि' शाल्यादीनि एवं वल्लीगुल्मादयोऽपि वनस्पतिभेदा द्रष्टव्याः, त्रस्यन्तीति 'त्रसा' द्वीन्द्रियादयः 'प्राणा' प्राणिनः ये चाण्डाजाता अण्डजाःशकुनिसरीसृपादयः 'ये च जरायुजा' जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते, ते च गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, तथा संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजा यूकामत्कुणकृम्यादयः 'ये च रसजाभिधाना' दधिसौवीरकादिषु रूतपक्ष्मसन्निभा इति ॥१॥
___टीका - नानाभेदभिन्नं जीवसंघातं प्रदाधुना तदुपघाते दोषं प्रदर्शयितुमाह- 'एते' पृथिव्यादयः 'काया' जीवनिकाया भगवद्धिः 'प्रवेदिताः' कथिताः, छान्दसत्वान्नपुंसकलिङ्गता, “एतेषु' च पूर्वं प्रतिपादितेषु पृथिवीकायादिषु प्राणिषु 'सातं' सुखं जानीहि, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽपि सत्त्वाः सातैषिणो दुःखद्विषश्चेति ज्ञात्वा 'प्रत्युपेक्षस्व' कुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोचयेति, यथैभिः कायैः समारभ्यमाणैः पीड्यमानैरात्मा दण्ड्यते, एतत्समारम्भादात्मदण्डो भवतीत्यर्थः, अथवैभिरेव कायैर्ये 'आयतदण्डा' दीर्घदण्डाः, एतदुक्तं भवति- एतान् कायान् ये दीर्घकालं दण्डयन्तिपीडयन्तीति, तेषां यद्भवति तदर्शयति-ते एतेष्वेव-पृथिव्यादिकायेषु विविधम्-अनेकप्रकार परि-समन्ताद् आशुक्षिप्रमुप-सामीप्येन यान्ति-व्रजन्ति, तेष्वेव पृथिव्यादिकायेषु विविधमनेकप्रकारं भूयो भूयः समुत्पद्यन्त इत्यर्थः, यदिवाविपर्यासो-व्यत्ययः, सुखार्थिभिः कायसमारम्भः क्रियते तत्समारम्भेण च दुःखमेवावाप्यते न सुखमिति. यदिवा कुतीर्थिका मोक्षार्थमेतैः कायैयाँ क्रियां कुर्वन्ति तया संसार एव भवतीति ॥२॥
टीकार्थ - पृथिवी अर्थात् पृथिवीकाय के जीव यहां चकार स्वगत भेद को सूचक करता है, वह भेद यह है । पृथिवीकाय के प्राणी सूक्ष्म और बादर दो प्रकार के हैं और वे प्रत्येक पर्याप्त तथा अपर्याप्त भेद से दो प्रकार के हैं। इसी तरह जलकाय, अग्निकाय, और वायुकाय के जीवों को भी जानना चाहिए । वनस्पतिकाय के जीवों
दिखालाते हैं- तण अर्थात कश आदि और वृक्ष अर्थात् अश्वत्थ (पीप्पल) आदि, बीज अर्थात् शालि आदि, इसी तरह लता और झाड़ी आदि भी वनस्पति के भेद जानने चाहिए । जो भय पाते हैं, वे द्वीन्द्रिय आदि प्राणी, एवं अण्डे से उत्पन्न, पक्षी और सर्प आदि, तथा जरायुज यानी जो जम्बाल से वेष्ठित उत्पन्न होनेवाले गाय, भेंस, बकरी, भेड़ और मनुष्य आदि, एवं स्वेद से उत्पन्न होनेवाले खटमल और कृमि आदि, तथा रसजा जो दही और काँजी आदि से उत्पन्न सूक्ष्म पक्ष्मवाले जीव होते हैं, वे सब प्राणी हैं ॥१॥
टीकार्थ - अनेक भेदवाले जीवसमूह को दिखाकर अब शास्त्रकार उनके उपघात में दोष दिखाने के लिए कहते हैं- इन पृथिवीकाय आदि को तीर्थकरों ने जीवसमूह कहा है (छान्दस होने के कारण यहां नपुंसकलिङ्गता हुई है)। इन पूर्वोक्त पृथिवीकाय आदि जीवों में सुख की इच्छा जाननी चाहिए । आशय यह है कि- ये सभी प्राणी सुख की इच्छा करते हैं और दुःख से द्वेष करते हैं, यह जानकर सूक्ष्मबुद्धि से विचार करो कि इन प्राणियों को पीड़ा देने से अपनी आत्मा दण्ड की भागी बनती है अर्थात् इनमें आरम्भ करने से आत्मा को कष्ट भोगना पड़ता है । अथवा-इन प्राणियों को जो चिर काल तक दण्ड देते हैं, उनकी जो दशा होती है, वह शास्त्रकार दिखलाते हैं-पूर्वोक्त पृथिवीकाय आदि जीवों को पीड़ा देनेवाले जीव, इन पृथिवीकाय आदि योनियों में ही बार-बार जन्म लेते हैं । अथवा प्राणी वर्ग सुख की प्राप्ति के लिए जीवों का आरम्भ करते हैं परन्तु उस आरम्भ से दुःख ही प्राप्त होता है, सख नहीं मिलता । अथवा कतीर्थी मोक्ष के लिए इन प्राणियों के द्वारा जो क्रिया करते हैं, उससे उनको संसार की ही प्राप्ति होती है ॥२॥
- यथा चासावायतदण्डो मोक्षार्थी तान् कायान् समारभ्य तद्विपर्ययात् संसारमाप्नोति तथा दर्शयति
- उक्त प्राणियों को दण्ड देकर मोक्ष की इच्छा रखनेवाले पुरुष जीवों को दण्ड देकर मोक्ष से विपरीत जिस प्रकार संसार को ही प्राप्त करते हैं, सो शास्त्रकार दिखलाते हैं...... जाईपहं अणुपरिवट्टमाणे, तसथावरेहिं विणिघायमेति ।
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