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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते षष्ठमध्ययने गाथा २९ - साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तीर्थकरगुणानाख्याय स्वशिष्यानाह - श्रीसुधर्मा स्वामी तीर्थङ्कर के गुणों को बताकर अब अपने शिष्यों से कहते हैं कि श्री वीरस्तुत्यधिकारः सोच्चा य धम्मं अरहंत भासियं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं । 1 तं सद्दहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्संति । त्ति बेमि गाथाग्रं० (३९०) इति श्री वीरत्थुतीनाम छट्ठमज्झयणं समत्तं ॥ श्रुत्वा च धर्ममर्हद्वाषितं समाहितमर्थपदोशुद्धम् । तं श्रद्दधानाश्च जना भनायुष हन्द्र इव देवाधिपा आगमिष्यन्तीति ब्रवीमि ॥ छाया ॥२९॥ अन्वयार्थ - (अरहंतभासियं) श्री अरिहंतदेव के द्वारा भाषित (समाहितं) युक्ति युक्त (अट्ठपदोवसुद्धं) अर्थ और पदों से शुद्ध (धम्मं सोच्चा) धर्म को सुनकर (तं सद्दहाणा) उसमें श्रद्धा रखनेवाले (जणा अणाऊ ) जीव मोक्ष को प्राप्त करते हैं (इंदा व देवाहिव आगमिस्संति) अथवा वे इन्द्र की तरह देवताओं के स्वामी होते हैं । भावार्थ - अरिहन्त देव के द्वारा कहे हुए युक्तिसङ्गत तथा शुद्ध अर्थ और पदवाले इस धर्म को सुनकर जो जीव इसमें श्रद्धा करते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं अथवा इन्द्र की तरह देवताओं के अधिपति होते हैं । -- टीका 'सोच्चा य' इत्यादि, श्रुत्वा च दुर्गतिधारणाद्धर्मं - श्रुतचारित्राख्यमर्हद्भिर्भाषितं - सम्यगाख्यातमर्थपदानियुक्तयो हेतवो वा तैरुपशुद्धम् - अवदातं सद्युक्तिकं सद्धेतुकं वा यदिवा अर्थैः- अभिधेयैः पदैश्च- वाचकैः शब्दैः उप-सामीप्येन शुद्धं निर्दोषं, तमेवम्भूतमर्हद्भिर्भाषितं धर्मं श्रद्दधानाः, तथाऽनुतिष्ठन्तो 'जना' लोका 'अनायुषः ' अपगतायुः कर्माणः सन्तः सिद्धाः, सायुषश्चेन्द्राद्या देवाधिपा आगमिष्यन्तीति । इतिशब्दः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२९॥ इति वीरस्तवाख्यं षष्ठमध्ययनं परिसमाप्तमिति ॥ टीकार्थ - दुर्गति में पड़ने से बचाने के कारण जो धर्म कहा जाता है, वह श्रुत और चारित्र रूप धर्म तीर्थकर के द्वारा कहा हुआ है तथा वह युक्ति और हेतु से शुद्ध है अर्थात् वह उत्तम युक्ति और उत्तम हेतु से सङ्गत है अथवा वह अर्थ यानी अभिधेय तथा पद यानी वाचक शब्दों से दोष रहित है। ऐसे जिनभाषित धर्म में जो जीव श्रद्धा रखते हैं तथा आचरण करते हैं, वे आयुः कर्म से रहित हों तो सिद्धि को प्राप्त करते हैं और आयु के सहित हो, तो इन्द्र आदि देवाधिपति होते हैं । इति शब्द समाप्ति का द्योतक है । ब्रवीमि पूर्ववत् है । यह वीरस्तव नामक छट्ठा अध्ययन समाप्त हुआ ।
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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